Saturday 11 June 2011

अमर शहीद उधम सिंह -प्रतिशोध का अंगार




सौंजन्य-पुस्तक-"हमारे युवा बलिदानी ",लेखक-उमाकांत मालवीय

वन्दे मातरम ,

तो प्रस्तुत है उनके जीवन का संक्षेप में परिचय -

भारत के इतिहास में जलियावाला बाग़ की घटना का अपना विशेष महत्त्व है ,अधर्मी नराधम क्रूर अँगरेज़ जनरल दायर ने नराधम अँगरेज़ माइकल ओ दयार के क्रूरतापूर्ण आदेश के चलते कई हजार भारतवासियों को जलियावाला बाग़ में मार डाला ,उस माइकल ओ दायर नाम के नीच को छोटे छोटे बच्चों और स्त्रियों पर भी दया नहीं आई ,उन हजारों लोगों का केवल यह अपराध था की वो अपनी राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे | इस घृणित कार्य की सर्वत्र निंदा हुई , यद्यपि दायर की सब जगह निंदा हुई किन्तु अँगरेज़ सरकार ने उसके विरुद्ध एक शब्द भी नहीं कहा जब की इसी कमीनी सरकार ने वारेन हेस्टिंग्स के अन्यायों के लिए उस पर मुकदमा चलाया था |
वीर उधम सिंह अमृत सर के निवासी थे उनका जन्म २६ दिसंबर १८९९ में हुआ था ,उनके पिता राष्ट्रीय विचारों के थे | पंजाब के लाला लाजपत राय के विचारों का उनपर गहरा प्रभाव था | जन जागृति के कार्यक्रम में उनका अटूट विश्वास था ,वे सदैव उसमे सक्रिय रूचि लेते थे | उधम सिंह के माता-पिता का बचपन में ही देहांत हो गया ,फलस्वरूप उनको अपने बचपान का शेष काल अनाथ आश्रम में बिताना पड़ा ,बचपन से ही उधम सिंह तेज ,हठीले और निर्भीक स्वभाव के थे ,वे जिस काम में लग जाते उसे पूरा करके ही दम लेते ,जलियावाला बाग़ हत्याकांड के समय उन्होंने युवावस्था में प्रवेश ही किया ,उन्होंने उस घटना में बाद प्रतिज्ञा की की वो माइकल ओ दायर का अंत करके जलियावाला बाग़ के बलिदानियों का ऋण चुकायेंगे | सन १९३३ में वो इंग्लैंड चले गए ,उन्होंने लन्दन में इंजीनियरिंग में दाखिला लिया , भारतवासियों के शत्रु माइकल ओ दायर से बदला लेने की उत्कट इच्छा ही उनके आंग्ल देश जाने का कारण थी|

वहां उन्होंने रिवाल्वर तथा गोलियां प्राप्त की , तथा १३ मार्च सन १९४० को लन्दन कैक्सटन हाल में सेंट्रल एशियन सोसाइटी और इस्ट इंडिया असोसिएशन की बैठक में कमीने माइकल ओ दायर का वध कर दिया ,उन्हें पकड़ लिया गया,वो बड़े प्रसन्न थे उन्होंने अपने बयान में कहा
"वो (दायर ) मेरे देश के वासियों के स्वाभिमान को कुचलना चाहता था तो मैंने उसे कुचल दिया" अंग्रेजों तथा यवनों के टट्टू गाँधी और नेहरु ने उनके इस महान कार्य को दुर्भाग्य पूर्ण कहा ,जय हो शर्मनिरपेक्षता की !
वीर उधम सिंह शान से ३१ जुलाई १९४० को इन्कलाब जिंदाबाद का नारा प्रशस्त करते हुए फांसी के फंदे पर अमर हो गये! भारत माँ ने गर्व से अपने उस वीर पुत्र के लिए अपनी बाहें फैला लीं , स्वर्ग से त्रिदेवों ने प्रसन्न भाव से उन्हें वरदान दिया -
मृत्युंजयी भव! (भगवान् आशुतोष ने )
मृत्युंजयी भव!-(भगवान् प्रजापति ने )
मृत्युंजयी भव ! (भगवान् श्री हरी ने )

Wednesday 25 May 2011

कहाँ गए वो चाणक्य जो एक हजार चन्द्रगुप्त तैयार कर अखंड भारत की नीव रखते थे , लगता है आधुनिकता खा गयी !




भाइयों यह बड़ा सामन्य लगने वाला किन्तु बड़ा गंभीर विषय है ,आज यह विषय कई बार छेड़ा जाता है किन्तु मात्र इसे निबंध समझ कर किताबों या अभ्यास पुस्तकों में कैद कर लिया जाता है , आज समय फिर से चाणक्य ,गुरु वशिष्ठ और गुरु विश्वामित्र की मांग कर रहा है जो श्री राम और चन्द्रगुप्त जैसे राष्ट्रभक्त राजाओं को जन्म दे अखंड भारत का पतन रोक सकें ,किन्तु प्रश्न यह है कहाँ हैं वो गुरु जो श्री राम और चाणक्य को तैयार कर देश का पतन रोक सकें ,कहाँ हैं हमारी वो मर्यादाएं और सभ्यताएँ ,क्या आधुनिकता उसे खा गयी या मैकाले की शिक्षा पद्दति ने उसे निगल लिया ,शर्म आती है आज के पब्लिक स्कूल के अध्यापकों को अध्यापक या गुरु कहते हुए ,सुप्रसिद्ध चाणक्य धारावाहिक में एक संवाद था -"जब राष्ट्र की बागडोर राजा नहीं संभल पता तो शिक्षक उसे संभालता है " क्या आप इस बात को मानते हैं आज के सन्दर्भ में ,नहीं यह विचारधारा जो करीब ३००० वर्षों पूर्व चली थी आज मुल्लों और अंग्रेजों की गन्दी नीतियों तथा आजादी के बाद नेहरु जैसे कुत्तों के चलते गर्त में मिल गयी और आज उसका सम्पूर्ण नाश करने में सहयोगी मीडिया और बॉलीवुड है और विरोध करो तो हम जैसे लोग बंद दिमाग वाले और नालायक की संज्ञा पाते हैं ,वाह भाई वाह
जब युद्ध भूमि पर धर्मराज युधिष्ठिर गुरु द्रोणाचार्य से युद्ध की आज्ञा तथा आशीर्वाद लेने गए तो गुरु द्रोणाचार्य ने उन्हें बड़े महत्त्व की बात कही जो उनकी ओर इंगित थी उन्होंने कहा -"शिष्य जो गुरु अपनी विद्या का सौदा कर देता है वो आदरणीय नहीं होता बल्कि अर्थ का दास होता है " आज ऐसे हजारों द्रोणाचार्य भारतीय सभ्यता के चीरहरण में चटखारों के साथ योगदान कर रहे हैं ,कैसी शर्मनाक स्थिति है ,

आज सारे गुरु विद्या का सौदा करते हैं और वही शिष्य उन्हें पसंद आते हैं जो गुंडागर्दी कर स्वयं को स्मार्ट कहते हैं थू !
मैं अपना एक किस्सा सुनाता हूँ मेरी अंग्रेजी की अध्यापिका ने मुझसे कहा -"इस उम्र में लड़के कटरीना कैफ के पीछे भागते हैं और तुम क्रांतिकारियों के पीछे "
क्या विचार है थू !
एक हमारे एक और महाशय अध्यापक श्री विक्रांत पाण्डेय भी धन्य हैं ,कक्षा में आकर बच्चों को श्रेष्ठ संस्कार देने के बजाय डबल अर्थी गंदे शब्द और गालियों के साथ भद्दे चुटकुले सुनाते हैं |
कितनी महान शिक्षा है वाह !
मेरी एक बार उनसे हिंदुत्व को लेकर बहस छिड़ गयी और उन्होंने मेरे पिताजी से यह शिकायत कर दी की मैं -मुस्लिम विरोधी हूँ जिसकी वजह से मुझे घर में फटकार मिली
वाह वाह क्या अध्यापक धर्म है
चाहे आप इसे मेरी व्यक्तिगत भड़ास कहें या मेरा क्रोध किन्तु स्थिति इतनी ही कुरूप है

बताइए गुरु धर्म के गिरते हुए स्टार का जिम्मेदार मैं किसे कहूँ और आप किसे कहेंगे -
नेहरु को?
अंग्रेजों को ?
मैकाले को ?
या
शर्मनिरपेक्षता को |

यह उत्तर देना हर एक का नैतिक कर्त्तव्य है क्योंकि मेरी तरह आप का भी बच्चा पब्लिक स्कूलों में पढता होगा!

जय श्री राम !

Saturday 23 April 2011

अमर शहीद हरिकिशन मल

यह मृत्युंजयी महावीर भी एक तूफान थे
जो आया और अंग्रेजी राज्य को बुरी तरह झकझोर कर चला गया |


हरिकिशन का जन्म १९०९ में उत्तर -पश्चिमी सीमाप्रांत (अब नापकिस्तान ) के मरदान जिले में हुआ था | इनके पिता का नाम गुरुदास मल था |
हरिकिशन विद्यार्थी थे तभी से उनका संपर्क नौजवान भारत सभा(शहीद भगत सिंह द्वारा निर्मित ) से हो गया था ,खुदाई खिदमतगार आन्दोलन में भी हरिकिशन सक्रिय थे | सन १९३० के सविनय अवज्ञा आन्दोलन (जो गाँधी का ढोंग था) में भी शामिल थे (स्पष्ट रूप से गाँधी के दोमुहे चेहरे से अपरिचित थे ) |
कुछ दिनों से परिवार के लोगों को हरिकिशन कुछ बदले बदले से लग रहे थे ,उसके पिता ने उससे पूछताछ की तो पता चला की हरिकिशन ने पंजाब के आत्याचारी अंग्रेजी गवर्नर -सर ज्योफ्रे दा मोंत्मरेंसी के वध का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर लिया है | यह जानकार उनके पिता गंभीर हो गए और पिताजी में हरिकिशन से कहा -"हम पठान इलाके के निवासी हैं | पठान बहादुरी में बेमिसाल होते हैं | यदि तुम पीठ दिखाकर भाग आये या पुलिस की यातनाओं से टूटकर अपने साथियों के नाम बता दिए तो यह परिवार गद्दारों का परिवार कहलायेगा | तुम जो करने जा रहे हो उसका फल मृत्युदंड होगा यह तो तुम्हे मालूम ही HOGA |
हरिकिशन की आँखें चमक उठीं ,"पिताजी !,मैं आपका बेटा हूँ ! ,मैं भागूँगा नहीं | पुलिस इस देह की बोटी -बोटी काट दे ,तप भी मैं उफ़ नहीं करूँगा | "

तब अचूक निशानेबाज गुरुदास मल ने उत्साह से बेटे को निशाना लगाना सिखाया |
२३ दिसंबर १९३० को लाहौर में पंजाब विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह हुआ | गवर्नर शान से मंच पर बैठा था | उपाधि पाने वालों और मेहमानों से हाल खचाखच भरा हुआ था ,उन्ही में हरिकिशन भी बैठे थे | उन्होंने शब्दकोष के पन्ने के भीतर पिस्तौल छिपा रखी थी | वोह समारोह की समाप्ति का उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे |
आखिर समारोह समाप्त हुआ |
मझोले कद के दुबला-पतला हरिकिशन उठे और देखते देखते उन्होंने गवर्नर के शरीर में पांच गोलियां दाग दीं ,(गवर्नर घयाल तो हुआ किन्तु मरा नहीं ) ,इसके बाद हरिकिशन ने आत्मसमर्पण कर दिया |
पुलिस ने उन्हें अनेक यातनाएं दीं , किन्तु प्रत्येक आत्याचार के बाद बाद उनकी आत्मा अधिक फौलादी होती चली गयी ,वह कुछ नहीं बोले |
जज ने उन्हें चौदह -चौदह वर्ष के कारावास की दो सजाएँ और मृत्युदंड दिया | (जबकि गवर्नर मारा भी नहीं ,तब भी मृत्युदंड ,यह था अँगरेज़ सरकार का न्याय का ढोंग ) "जज साहब,मुझे फँसी पर लटकाने के बाद मेरी लाश को अट्ठाईस वर्ष जेल में रखा जायेगा या अट्ठाईस वर्ष जेल में रखने के बाद फांसी दे जाएगी "| हरिकिशन खिलखिला हंस पड़े |
९ जून १९३१ को मियांवाली जेल में फांसी चढ़ते समय ,उन्होंने जल्लाद और पुलिस को डांट दिया ,"खबरदार! मुझे छूना मत !" फिर उन्होंने फांसी के पहने को चूमा ,
"भारत माता की जय" तथा "इन्कलाब जिंदाबाद " और वन्देमातरम के नारे लगाए और अमर हो गए | उन वीर की इस वीरता को अँगरेज़ कैसे सहन करते ,उनकी मृत देह उनके घर वालों को नहीं दी गयी ,उनके शव को जेल के बहार ही जलाकर राख को नदी में बहा दिया गया |

सहसा ही यह वीरता देख देवगणों ने स्वर्ग से और साक्षात् त्रिदेव ने अपने अपने लोकों से हरिकिशन को आशीर्वाद दिया और कहा
-
मृत्युंजयी भव!
मृत्युंजयी भव !
मृत्युंजयी भाव !

मृत्युंजयी चापेकर बंधू




पुणे की चित्पवान ब्राह्मण परिवार में दामोदर चापेकर का सन १८६९ में ,बालकृष्ण चापेकर का सन १८७३ में और वासुदेव चापेकर का सन १८८० में जन्म हुआ | तीनो भाइयों क्र मन में देशभक्ति की अखंड ज्योति जल रही थी | सन १८९७ में पुणे में प्लेग नामक भयंकर रोग फैला ,शिवाजी महाराज जयंती और गणेश उत्सव की क्रमशः बढ़ते हुए राष्ट्रीय उत्सव से अंग्रेज सरकार वैसे भी आतंकित थी , इसी बहाने वो लोगों से उनके मकान खाली करवा लेती और उन पर मनमाने अत्त्याचार करती | पुणे का प्लेग कमिश्नर रैंड इन अत्त्याचारियों का सरगना |
२२ जून १८९७ को विक्टोरिया के के राज्यारोहण की सांठवी वर्षगांठ थी | इसे बड़ी धूमधाम से गवर्मेंट हाउस में मनाया जा रहा था | एक लेफ्टिनेंट आय्रस्त उसी समय वहां से गुजर रहा था की की सहसा गोली का धमाका हुआ और दुसरे ही क्षण पापी रैंड धरती पर धराशायी हो गया ,उसी समय लेफ्टिनेंट आय्र्स्त को भी एक गोली लगी जिससे वोह भी यमलोक सिधार गया ,दामोदर चापेकर ने रैंड के और बालकृष्ण चापेकर ने आय्र्स्त का काम तमाम कर दिया |
दामोदर चापेकर और बालकृष्ण चापेकर दोनों भाई गिरफ्तार कर लिए गए और उनका एक साथी भी गिरफ्तार कर लिया गया , किन्तु किसी प्रलोभंवश या मृत्यु के भयवश तीसरा व्यक्ति सरकारी मुखबीर बन बैठा |
चापेकर बंधुओं में तीसरा भाई वासुदेव चापेकर था | उसने जब सरकारी गवाह वाला समाचार सुना तो वो प्रतिशोध लेने के लिए तत्पर हो उठा ,सरकारी गवाह को उसकी करनी का फल चखाने के लिए उसने भरी अदालत में देशद्रोही मुखबीर को अपनी एक ही गोली से यमलोक पहुंचा दिया |
दामोदर चापेकर १८ अप्रैल सन १८९८ ,बालकृष्ण चापेकर १२ मई सन १८९९, तथा वासुदेव चापेकर८ माई सन १८९९ को यरवदा जेल में मुस्कुराते हुए फांसी के फंदे पर अमर हो गए | इन तीनो के बलिदान ने समूचे भारत वर्ष को झकझोर दिया ,इससे भारतीय युवकों में आक्रोश में भड़क उठा | युवाओं ने माँ दुर्गा के सामने खड़े हो कर प्रार्थना की " माँ हमे शक्ति दो ,हम भारत की स्वाधीनता के लिए तब तक लड़ें जब तक हमारी जान में जान रहे | माँ हमे यह शक्ति दो ताकि हम अपने उद्देश्य में सफल हो सकें " |

आइये हम सब भी चापेकर भाइयों को याद करें और देश को पूर्ण स्वतंत्र करने की शपथ लें अखंड भारत निर्माता विनायक दामोदर सावरकर की इस कविता के साथ -

"निज स्वार्थों पर ठोकर मारी ,दुष्ट रैंड के प्राण हरे ,
परार्थ साधक श्री चापेकर आज उन्हें हम नमन करें
अंग्रेजों के दुष्ट कुटिल षड्यंत्र जिन्होंने ध्वस्त किये ,
देश हितैषी श्री चापेकर आज उन्हें हम नमन करें |
प्राण जाय पर सत्य ने जाय जो आजीवन टेक करे ,
धेय्य निष्ठ थे ,वीर श्रेष्ठ थे ,आज उन्हें हम नमन करें
देश धर्म की बलिदेवी पर प्रथम रहे देशापर्ण में ,
वंदन है शत बार हमारा श्री चापेकर चरणों में |
बिना शत्रु की तौले ताकत कूद पड़े समरांगण में ,
वंदन है शत बार हमारा ,श्री चापेकर चरणों में |
तीनो भाई मित्र रानाडे हँसते झूले फांसी में ,
मृत्यु पथ पर चले धीर-वर लेकर गीता हाथों में |
वंदन है शत बार हमारा श्री चापेकर चरणों में
कार्य अधुरा छोड़ चले हो इसकी चिंता करो नहीं ,
सब कुछ दे कर पूर्ण करूँगा माना जीवन धेय्य यही"

इन्कलाब जिंदाबाद !
चापेकर बंधू अमर रहें !
(चापेकर बंधुओं के बारे में मैंने अपनी कुछ पुस्तकों से इस कंप्यूटर पर छापा है ,इसमें मेरा कोई योगदान नहीं |)

Friday 22 April 2011

श्री राम प्रसाद बिस्मिल



यह महावीर क्रांतिकारी ,मात्र एक क्रांतिकारी नहीं थे ,ये इतिहास थे उस कविता के जिसे पढ़ कर उस समय और आज भी क्रांतिकारियों के मन में राष्ट्रभक्ति हिलोरें मारती हैं
उस कविता का नाम है -
"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ||
देखना है जोर कितना बाजू ऐ कातिल में है ||

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल गजब के कवी और शायर थे ,बड़े तगड़े थे जो उनसे मिलता कहता "कदाचित किसी और समय या किसी और देश में होते तो सेनानायक होते ,
आपका जन्म १८९७ में उत्तरप्रदेश के शाहजहाँ पुर में हुआ था ,आपके जीवन को क्रांति की ओर मोड़ने में आपकी माता का बड़ा योगदान रहा, आपकी माता ने आपका मार्गदर्शन ठीक वैसे ही किया जैसे मैजेनी नामक वीर क्रांतिकारी की माता ने मैजेनी का किया था,आपकी माँ ने आपसे मानव रक्त से अपने हाथ न लाल करने की सौगंध ली थी और आपने इसका आजीवन पालन किया ,आप बचपन में पिता से बहुत मार खाते थे और आप अपने संस्मरणों में लिखते हैं "कदाचित बचपन में मार खा खा कर आपकी देह जुल्म सहने के योग्य हुई | खैर ,जब आप के बचपन के बारे में मेरे पास अधिक साहित्य नहीं ,इसके लिए क्षमा चाहूँगा , जब आप युवा हुए तब आप "हिंदुस्तान प्रजातान्त्रिक संघ के सबसे महत्वपूर्ण सदस्य बन गए , उस दल के संस्थापक श्री सचिंद्रनाथ सान्याल (ये संस्थापक चंद्रशेखर आजाद से पूर्व थे इस दल के इन्ही के नेत्रत्व में आजाद जी ने भी काम किया था ) आपके व्यक्तित्व , आपकी कविता के कायल थे ,दल के सभी सदस्य आपका बड़ा आदर करते थे ,कुछ समय बाद आपकी भेंट एक अन्य वीर क्रांतिकारी शहीद अशफाकुल्ला खान से हुई और आप दोनों एक प्राण दो शरीर बन गए (जैसे भगत सिंह और सुखदेव ) अशफाकुल्ला खान भी इसी दल में थे और आप दोनों सदा साथ रहा करते थे ,चंद्रशेखर आजाद आपके सबसे प्रीय अनुगामी थे ,
सचिंद्रनाथ सान्याल बाबु के अकस्मात् पकडे जाने से दल के कार्य का सारा भार आपके कन्धों पर आ गया ,आपको दल का नेता बनाया गया ,और आपके नेत्रत्व में दल ने दुष्ट पूंजीपतियों के घर डाके डाले दल के धन जमा करने के लिए ,आपने और आपके साथियों ने दल के धन से एक पैसा स्वयं पर न खर्च किया ,ऐसे स्वाभिमानी थे आप सब , चंद्रशेखर आजादजी के कहने पर अब निश्चय हुआ हिन्दुस्थानियों के दल में डाका डालने से बदनाम होने से अच्छा है की अंग्रेजी साम्राज्य के खजाने पर डाका डाला जाए ,आपको यह योजना पसंद आई और सबने इस बात की स्वीकृति भर दी | शीघ्र ही इसका अवसर आ भी गया ,आपको पता चला की सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली रेलगाड़ी में अंग्रेजी खजाना जा रहा है जिसमे बहुत धन है और वो धन दल के हाथ लग गया तो दल को बहुत सहायता मिलेगी , आपने सबकी सहमति से निश्चय किया की इस रेलगाड़ी पर बिना किसी प्राण हानि के डाका दल कर यह खजाना हथिया लिया जाए , किन्तु अशफाकुल्ला खान ने चिंता व्यक्त की "अभी दल अंग्रेजी हुकूमत को इतना करारा थप्पड़ मारने के लिए शक्तिशाली नहीं ,यदि यह योजना हुई तो दल के नष्ट होने का खतरा है " किन्तु धन की कमी से विवश हो कर किसी ने गौर न किया गया ,आप इस कार्यवाही के नेता हुए ,इस कार्य में अशफाकुल्ला ,रोशन सिंह ,राजेंद्र लिहिरी ,चंद्रशेखर आजाद ,मुकुन्दी लाल आदि साथी शामिल थे ,९ अगस्त १९२५ को रात्री में इस कार्यवाही को अंजाम दिया गया ,इस कार्यवाही से अंग्रेजी हुकूमत सकते में आ गयी ,पूरे भारत में क्रांतिकारियों की धर पकड़ आरंभ हो गयी विशेष रूप से आपकी और आजाद जी की (जो पुलिस के पहले ही सबसे भयानक शत्रु थे ) एक साथी की गद्दारी के कारण आप और अशफाक जी पकड़ लिए गए , और अन्य साथी भी पकड़ लिए (चंद्रशेखर आजाद को छोड़ कर ) ,पुलिस ने आप पर सैकड़ों अत्त्याचार किये की आप अपना गुनाह मान लें और आजाद जी का पता बता दें ,किन्तु आप ने सबही जुल्मों को हँसते हुए सहा और दल के उत्तराधिकारी चंद्रशेखर आजाद पर आंच न आने दी , आप जेल में शायरी करते ,कविता करते ,खूब प्रसन्न रहते ,आप पर काकोरी काण्ड पर मुकदमा चला जिसमे अँगरेज़ सरकार का लगभग १ लाख रूपया खर्च हुआ , सरकारी गवाह पंडित जगतनारायण मुल्ला ने आप को फांसी लगवाने में बहुत मेहनत की जिससे अंग्रेजों ने आपको बहुत धन दिया ,अंत में न्याय का ढोंग खत्म हुआ आपको ,अशफाकुल्ला , रोशन सिंह ,राजेंद्र लिहिरी को मृत्युदंड मिला ,यह सुन कर आप सब प्रसन्नता से फूले न समाये ,आपने दंड सुनने के बाद सरकारी वकील को अपनी इस कथनी से लज्जित कर दिया "इश्वर करे आपको बुढापे में हमारे खून से रंगे पैसों से चैन की नींद आये " वकील यह सुन लज्जित हो गया ,एक खबर मिली की आपका प्यारा साथी अशफाकुल्ला खान जेल में बीमार हैं ,पुलिस आपको वहां ले गयी और आपको देखते ही अशफाकुल्ला की खान की बीमारी चली गयी ,ऐसे गाढ़ी थी आप दोनों की मित्रता , चंद्रशेखर आजाद ने आपको जेल से छुडाने की पूरी कोशिश की किन्तु सफल न हुए तो आपने उन्हें पत्र लिखा -
"मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या "
दिल की बर्बादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या "
जेल में आपने अपनी आत्मकथा लिखी ,किन्तु उसका क्या हुआ यह आज तक पता नहीं चल पाया | (किसी ने पता लगाने की आवश्कयता नहीं समझी )
फांसी से दो दिन पहले जब आपको दूध पीने को दिया गया तो आप ने हंस कर कहा की "मैं तो अब माँ का दूध ही पियूँगा"
फांसी से एक दिन पहले १८ दिसंबर को आपकी वीर माँ आपसे मिलने आयीं तो आप उन्हें देख कर रोने लगे ,माँ ने सख्ती से कहा " दधिची ,हरिश्चंद्र आदि पूर्वजों की तरह धर्म और देश के लिए प्राण दे! ,तुझे शोक करने की कोई आवश्कयता नहीं ,आप हंस पड़े और बोले "माँ मुझे क्या पछतावा और क्या दुःख ? मैंने कोई अपराध नहीं किया किन्तु जिस प्रकार अग्नि के पास रखा घी पिघल ही जाता है ,उसी प्रकार आपको देख कर मैं रोने लगा ,वरना माँ मैं तो बड़ा प्रसन्न हूँ "
१९ दिसंबर को गोंडा जेल में फांसी के फंदे पर जाते समय आप बड़े प्रसन्न थे ,फांसी के तख़्त पर आपने एक शेर पढ़ा ,वो इस प्रकार था -
"मालिक तेरी रजा रहे ,और तू ही तू रहे
बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे "
जब तक तन में सांस ,रगों में लहू रहे "
तेरा ही जिक्रेयार और तेरी जुस्तुजू रहे "
फिर आपने जोर से सिंह गर्जना की " आई विश डा डाउन फोल ऑफ़ ब्रिटिश एम्पयार " (मैं अंग्रेजी साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ ")
फिर कुछ मन्त्र बुदबुदाये और वन्दे मातरम का उद्घोष किया
और फिर आप इस लोक को छोड़ दुसरे राम के बैकुंठ लोक चले गए |
आपने स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण दिए किन्तु इस शर्मनिरपेक्ष इंडियन सरकार ने आपकी शहादत को क्या दिया -
भारत वर्ष का विभाजन और भ्रष्टाचार
आपकी माँ के पास उनकी मृत्यु के समय फटे कपडे थे
किन्तु हम अब ऐसा नहीं होने देंगे
हम आपको न्याय दिलाएंगे

यह हमारी भीष्म प्रतिज्ञा है !

वन्दे मातरम !

Thursday 21 April 2011

जर्मन फ्रेंच सिखाने की आड़ में संस्कृति नष्ट करने का घोटाला जो सांस्कृतिक बात करे वो बंद दिमाग वाला ! वाह रे आधुनिकता वाह !



वाह रे आधुनिकता वाह ! अंग्रेजों को गए ६३ वर्ष हो गए लेकिन हम भारतियों के मन में आज भी यही झंडा फहरता है
क्रांतिवीरों ,अभी परसों मेरे स्कूल में जर्मन फ्रेंच सिखाने का दावा करने वाली कुछ टोली आई थी ,टोली के नायक थे एक इकबाल साहब ,स्पष्ट बात है अल्लाह मियां के बन्दे इक़बाल को हिन्दू संस्कृति का कोई मान हो तौबा तौबा ! आके झाड़ने लगे जेर्मन फ्रेंच की महानता के गुण , ये लोग बच्चों को ग्रीष्मावकाश में जेर्मन ,फ्रेंच आदि भाषा सिखाने आये थे ,इक़बाल मियां ने अर्ज़ किया की "भारतवासी सदा लेना जानते हैं देना नहीं ",वाह वाह ! इकबाल मियां इतिहास के कई पन्ने खा गए सुवर खाने के साथ , इनको पता नहीं होगा की इनका प्यारा नापकिस्तान जिसके लिए ये भारत की रोटी खा भारत से गद्दारी करते हैं उस पर जब बाढ़ आई तो भारत का ह्रदय द्रवित हो उठा और उसने सहायता की (येर बात अलग है की मुस्लिम भक्ति के चलते ऐसा हुआ ), भारत ने हर धर्म को शरण दी है इनके जाहिल पिस्स्लाम को भी क्या ये भारत की उदारता का परिचय नहीं की जो यहाँ का आया (यवनों और ईसाईयों के अलावा ) यहीं का हो गया , भारत के ऐसे बुरे दिन कदाचित ही आये हों जब उसे दुसरे देश से सहायता मांगनी पड़ी ,वरना हर देश की सहायता करने में भारत सबसे आगे रहता है , इक़बाल मियां ने आगे अर्ज़ किया "हम लोग विदेशियों का मुह ताकते थे " वाह सबसे बड़ा शर्मनाक झूठ ,भारत ने हर देश को कुछ न कुछ सदैव दिया है , बौद्ध धर्म भारत से अन्य देशों में गया ,यदि स्वामी विवेकानंद जी अमेरिका यदि न जाते तो अमेरिका आधुनिकता की आड़ में नष्ट हो जाता ,फिर एक सत्य यह भी है की अमेरिका से वो विज्ञानं भारत भूमि पर लाने गए थे और अमेरिका को आध्यात्म देने , स्वामी जी ने कहा था "यदि भारत का कल्याण चाहते हो तो भारत को चाहिए की अपने रत्न ले जा कर बहार के देशों की पृथ्वी पर समेत दें और दुसरे देश वाले जो कुछ भी दें उसे सहर्ष स्वीकार करें", और भारत ने ठीक ऐसा किया ,४० प्रतिशत वैज्ञानिक नासा के भारतीय हैं , भारत अमेरिका के रीढ़ की हड्डी है यदि भारत नहीं रहेगा तो अमेरिका का नामोनिशान नहीं , काश हम ये समझ पाते तो हमन इतने नपुंसक न होते की इक़बाल जैसे कुत्ते की बात यूँ ही सुन लेते ,यह तो हुई की भारत ने नैतिक मूल्य विश्व को क्या दिए ,अब यह जानिये की भारत का वेद आदि विज्ञानों का भण्डार था और विदेशियों ने इसे ही चुराया और अपने देश में ले जा कर इसे के आधार पर खोजें की और हमे हीन बताया ,यह मेरा दंभ नहीं ,कित्नु यह सत्य की भारत संसार के रीढ़ की हड्डी थी है और रहेगी |

छोडिये इसे इकबाल मियां ने आगे अर्ज़ किया की "यदि आप सब जर्मन फ्रेंच जान कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एजेंट बनो गे तो आपको ही लाभ होगा "
देश द्रोह की शिक्षा खुले आम , वाह रे मेरे स्कूल प्रशासन धन्य है तू ,शर्म आती है मुझे ऐसे स्कूल का बच्चा होने में
मैंने सोचा की तर्कों से इनकी ईट से ईट बजा दूं ,किन्तु अन्दर यह डर बैठ गया की स्कूल में बवाल होगा और मुझे निकाल देंगे ,इस देशद्रोह को मैं चुप चाप सह गया तो ,इसलिए आप मुझ पापी को क्षमा कर दें
ऐसे ही मैंने स्कूल में एक बार हिंदुत्व का मुद्दा उठाया तो मेरे अध्यापक ने मुझे बंद दिमाग का कहा ,
वाह रे हिन्दुस्थान कन्नड़ ,पंजाबी आदि भारतीय भाषाएँ सिखाने का न इन कुत्तों के पास समय है न इन्हें यह आवश्यक लगता है ,इन्हें आधुनिकता के नाम पर अंग्रेजी का बढ़ावा चाहिए ,इन इक़बाल जैसे सुवर के पिल्लों को और हमारे खान्ग्रेसियों और बॉलीवुड को,यही कारण है की यदि हम दुसरे राज्य में नौकरी करते हैं तो हमे अंग्रेजी आनी चाहिए क्योकि केरल में रहने वाला हिंदी नहीं जानता और उत्तर प्रदेश में रहने वाला केरल नहीं जानता ,क्या हम अंग्रेजी को बढ़ावा देने के बजाय भारतीय भाषाओं को बढ़ावा न दें और हिंदी हर राज्य में आवश्यक कर दें ,चाहे लोक भाषा कोई क्यों न हो ,
और जब कोई भारतीय भारतीयता की बात करे तो वो सांप्रदायिक है ,आधुनिकता का दुश्मन है ,स्टोन एज का समर्थक है
इन परिस्थितयों को देख मुह से सहसा निकल पड़ता है
मेरा भारत महान !

अमर शहीद वीर हुतात्मा शिवराम हरी राजगुरु




यह महावीर भी शहीद भगत सिंह और सुखदेव के मृत्युपरियंत साथी थे | राजगुरु का जन्म २४ अप्रैल १९०८ को महाराष्ट्र के पुणे जिले में हुआ था इनके पिता का निधन इनके छुटपन में ही हो गया था इनका पालन पोषण इनकी माता और बड़े भैया ने किया ,यह बचपन से ही बड़े वीर ,साहसी और मस्तमौला थे ,भारत माँ से प्रेम तो बचपन से ही था ,इसी प्रकार अंग्रेजों से घृणा तो स्वाभाविक ही थी ,ये बचपन से ही वीर शिवाजी और लोकमान्य तिलक के बहुत बड़े भक्त थे ,संकट मोल लेने में भी इनका कोई जवाब नहीं था (ये संकट मोलने में भगत सिंह से भी दस कदम आगे थे ) | किन्तु यह कभी कभी लापरवाही करते थे और पढ़ाई में इनका मन न लगता इसलिए इनको अपने बड़े भैया और भाभी का तिरस्कार सहना पड़ता ,माँ बेचारी कुछ बोल न पाती ,जब राजगुरु तिरस्कार सहते सहते तंग आ गए तो वोह अपने स्वाभिमान को बचने के लिए घर छोड़ कर चले गए ,फिर सोचा की"अब जब घर के बंधनों से स्वाधीन हूँ ही तो भारत माता की बेड़ियाँ काटने में अब कोई दुविधा नहीं है" वे कई दिनों तक भिन्न भिन्न क्रांतिकारियों से भेंट करते रहे अंत में उनकी क्रांति की नौका को चंद्रशेखर आजाद जी पार लगाया राजगुरु हिंदुस्तान सामाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ के सदस्य बन गए , चंद्रशेखर आजाद इस जोशीले नवयुवक से बहुत प्रभावित हुए और बड़े चाव से इन्हें निशाने बाजी की शिक्षा देने लगे और शीघ्र ही आजाद जी जैसे एक कुशल निशाने बाज बन गए ,कभी कभी चंद्रशेखर आजाद इनको इनकी लापरवाहियों पर डांट देते किन्तु यह सदा आजाद जी को बड़ा भाई समझ कर बुरा न मानते इनकी गोलियां कभी चुकती नहीं थीं ,दल में इनकी भेंट भगत सिंह और सुखदेव से हुयी राजगुरु इन दोनों से बड़े प्रभावित हुए और ये दोनों तो राजगुरु को अपना सबसे अच्छा साथी मानते थे | दल ने लाला लाजपत राय के मृत्यु के जिम्मेवार अँगरेज़ अफसर स्कॉट का वध करने की योजना बनायीं ,इस काम के लिए शहीद राजगुरु और भगत सिंह को चुना गया ,राजगुरु तो अंग्रेजों को सबक सिखाने का अवसर ढूँढ़ते ही रहते थे ,सो मिल गया
१७ दिसंबर १९२८ को राजगुरु ,भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद ने सुखदेव के कुशल मार्गदर्शन के फलस्वरूप सांडर्स नाम के एक अन्य अँगरेज़ अफसर जिसने स्कॉट के कहने पर लाला लाजपत राय पर लाठियां चलायीं का वध कर दिया ,कार्यवाही के पश्चात भगत सिंह अंग्रेजी साहब बन कर ,राजगुरु उनके सेवक बन कर और चंद्रशेखर आजाद सुरक्षित पुलिस की दृष्टि से बच कर निकल गए |
समय ने करवट बदली भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के असेम्बली में बम फोड़ने और स्वयं को गिरफ्तार करवाने के पश्चात चंद्रशेखर आजाद को छोड़ कर सुखदेव सहित दल के सभी सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए ,केवल राजगुरु ही इससे बचे रहे ,आजाद जी के कहने पर पुलिस से बचने के लिए राजगुरु कुछ दिनों के लिए महराष्ट्र चले गए किन्तु लापरवाही के कारण राजगुरु भी छुटपुट संघर्ष के बाद पकड़ लिए गए | अंग्रेजों ने चंद्रशेखर आजाद का पता जानने के लिए राजगुरु पर अनेकों अमानवीय अत्त्याचार किये किन्तु वो वीर विचलित न हुए ,लेशमात्र भी नहीं ,पुलिस ने राजगुरु को अपने सभी साथियों के साथ लाकर लाहौर जेल में बंद कर दिया ,सभी साथी मस्तमौला वीर मराठी राजगुरु को पाकर बड़े खुश थे ,लाहौर में सभी क्रांतिकारियों पर सांडर्स वध का मुकदमा चल रहा था ,मुक़दमे को क्रांतिकारियों ने अपनी फाकामस्ती से बड़ा लम्बा खींचा ,सभी जानते थे की अदालत ढोंग है उनका फैसला तो अंग्रेजी हुकूमत ने पहले ही कर दिया था ,राजगुरु ,भगत सिंह और सुखदेव जानते थे की उनकी मृत्यु का फरमान तो पहले ही लिखा जा चूका है तो क्यों न अदालत में अँगरेज़ जज को धुल चटाई जाए अपनी मस्तियों से ,एक बार राजगुरु ने अदालत में अँगरेज़ जज को संस्कृत में ललकारा ,जज चौंक गया उसने बोला " टूम क्या कहता हाय " राजगुरु ने भगत सिंह की तरफ हंस कर कहा की "यार भगत इसको अंग्रेजी में समझाओ ,यह जाहिल हमारी भाषा क्या समझेंगे" ,सभी क्रांतिकारी ठहाका मार कर हसने लगे ,जज मुह देखता रह गया ,इधर जेल में भगत सिंह के नेत्रत्व में क्रांतिकारियों ने जेल में कैदियों के साथ होने वाले अमानवीय अत्त्याचारों के विरुद्ध आमरण अनशन आरंभ कर दिया ,जिसको जनता का जबरदस्त समर्थन मिला जो पहले से ही क्रांतिकारियों के प्रति श्रद्धा का भाव रखती थी ,विशेष रूप से भगत सिंह के प्रति , वायसराय के कुर्सी तक हिल गयी ,अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को हड़ताल तुडवाने का जबरदस्त प्रयत्न किया किन्तु क्रांतिकारियों के जिद्द के सामने वो हार गए , राजगुरु और जतिन दस की इस अनशन में हालत बड़ी पतली हो गयी ,राजगुरु और सुखदेव से अँगरेज़ विशेष रूप से हार गए थे , जतिन दस आमरण अनशन के कारण शहीद हो गए जिससे जनता भड़क उठी ,विवश हो कर अंग्रेजों को क्रांतिकारियों की सभी बातें मनानी पड़ीं ,यह क्रांतिकारियों की विजय थी ,उधर सांडर्स वध मुक़दमे का परिणाम निकल आया
सांडर्स के वध के अपराध में राजगुरु ,सुखदेव और भगत सिंह को मृत्युदंड मिला | तीनों इस मृत्युदंड को सुन कर आनंद से पागल हो गए और जोर जोर से इन्कलाब जिंदाबाद की गर्जाना की !

२३ मार्च १९३१ को वीर राजगुरु ने अपने दोनों मतवाले साथियों -भगत सिंह और सुखदेव के साथ फांसी के फंदे के माध्यम से अपने राष्ट्र के लिए अपने पार्थिव शरीर का त्याग कर दिया ,राजगुरु का प्राण गगन में उड़ गया और जयघोष करने लगा -
इन्कलाब जिंदाबाद !
इन्कलाब जिंदाबाद !
इन्कलाब जिंदाबाद !
साम्राज्यवाद का नाश हो !
साम्राज्यवाद का नाश हो !
साम्राज्यवाद का नाश हो !