Saturday 11 June 2011

अमर शहीद उधम सिंह -प्रतिशोध का अंगार




सौंजन्य-पुस्तक-"हमारे युवा बलिदानी ",लेखक-उमाकांत मालवीय

वन्दे मातरम ,

तो प्रस्तुत है उनके जीवन का संक्षेप में परिचय -

भारत के इतिहास में जलियावाला बाग़ की घटना का अपना विशेष महत्त्व है ,अधर्मी नराधम क्रूर अँगरेज़ जनरल दायर ने नराधम अँगरेज़ माइकल ओ दयार के क्रूरतापूर्ण आदेश के चलते कई हजार भारतवासियों को जलियावाला बाग़ में मार डाला ,उस माइकल ओ दायर नाम के नीच को छोटे छोटे बच्चों और स्त्रियों पर भी दया नहीं आई ,उन हजारों लोगों का केवल यह अपराध था की वो अपनी राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे | इस घृणित कार्य की सर्वत्र निंदा हुई , यद्यपि दायर की सब जगह निंदा हुई किन्तु अँगरेज़ सरकार ने उसके विरुद्ध एक शब्द भी नहीं कहा जब की इसी कमीनी सरकार ने वारेन हेस्टिंग्स के अन्यायों के लिए उस पर मुकदमा चलाया था |
वीर उधम सिंह अमृत सर के निवासी थे उनका जन्म २६ दिसंबर १८९९ में हुआ था ,उनके पिता राष्ट्रीय विचारों के थे | पंजाब के लाला लाजपत राय के विचारों का उनपर गहरा प्रभाव था | जन जागृति के कार्यक्रम में उनका अटूट विश्वास था ,वे सदैव उसमे सक्रिय रूचि लेते थे | उधम सिंह के माता-पिता का बचपन में ही देहांत हो गया ,फलस्वरूप उनको अपने बचपान का शेष काल अनाथ आश्रम में बिताना पड़ा ,बचपन से ही उधम सिंह तेज ,हठीले और निर्भीक स्वभाव के थे ,वे जिस काम में लग जाते उसे पूरा करके ही दम लेते ,जलियावाला बाग़ हत्याकांड के समय उन्होंने युवावस्था में प्रवेश ही किया ,उन्होंने उस घटना में बाद प्रतिज्ञा की की वो माइकल ओ दायर का अंत करके जलियावाला बाग़ के बलिदानियों का ऋण चुकायेंगे | सन १९३३ में वो इंग्लैंड चले गए ,उन्होंने लन्दन में इंजीनियरिंग में दाखिला लिया , भारतवासियों के शत्रु माइकल ओ दायर से बदला लेने की उत्कट इच्छा ही उनके आंग्ल देश जाने का कारण थी|

वहां उन्होंने रिवाल्वर तथा गोलियां प्राप्त की , तथा १३ मार्च सन १९४० को लन्दन कैक्सटन हाल में सेंट्रल एशियन सोसाइटी और इस्ट इंडिया असोसिएशन की बैठक में कमीने माइकल ओ दायर का वध कर दिया ,उन्हें पकड़ लिया गया,वो बड़े प्रसन्न थे उन्होंने अपने बयान में कहा
"वो (दायर ) मेरे देश के वासियों के स्वाभिमान को कुचलना चाहता था तो मैंने उसे कुचल दिया" अंग्रेजों तथा यवनों के टट्टू गाँधी और नेहरु ने उनके इस महान कार्य को दुर्भाग्य पूर्ण कहा ,जय हो शर्मनिरपेक्षता की !
वीर उधम सिंह शान से ३१ जुलाई १९४० को इन्कलाब जिंदाबाद का नारा प्रशस्त करते हुए फांसी के फंदे पर अमर हो गये! भारत माँ ने गर्व से अपने उस वीर पुत्र के लिए अपनी बाहें फैला लीं , स्वर्ग से त्रिदेवों ने प्रसन्न भाव से उन्हें वरदान दिया -
मृत्युंजयी भव! (भगवान् आशुतोष ने )
मृत्युंजयी भव!-(भगवान् प्रजापति ने )
मृत्युंजयी भव ! (भगवान् श्री हरी ने )

Wednesday 25 May 2011

कहाँ गए वो चाणक्य जो एक हजार चन्द्रगुप्त तैयार कर अखंड भारत की नीव रखते थे , लगता है आधुनिकता खा गयी !




भाइयों यह बड़ा सामन्य लगने वाला किन्तु बड़ा गंभीर विषय है ,आज यह विषय कई बार छेड़ा जाता है किन्तु मात्र इसे निबंध समझ कर किताबों या अभ्यास पुस्तकों में कैद कर लिया जाता है , आज समय फिर से चाणक्य ,गुरु वशिष्ठ और गुरु विश्वामित्र की मांग कर रहा है जो श्री राम और चन्द्रगुप्त जैसे राष्ट्रभक्त राजाओं को जन्म दे अखंड भारत का पतन रोक सकें ,किन्तु प्रश्न यह है कहाँ हैं वो गुरु जो श्री राम और चाणक्य को तैयार कर देश का पतन रोक सकें ,कहाँ हैं हमारी वो मर्यादाएं और सभ्यताएँ ,क्या आधुनिकता उसे खा गयी या मैकाले की शिक्षा पद्दति ने उसे निगल लिया ,शर्म आती है आज के पब्लिक स्कूल के अध्यापकों को अध्यापक या गुरु कहते हुए ,सुप्रसिद्ध चाणक्य धारावाहिक में एक संवाद था -"जब राष्ट्र की बागडोर राजा नहीं संभल पता तो शिक्षक उसे संभालता है " क्या आप इस बात को मानते हैं आज के सन्दर्भ में ,नहीं यह विचारधारा जो करीब ३००० वर्षों पूर्व चली थी आज मुल्लों और अंग्रेजों की गन्दी नीतियों तथा आजादी के बाद नेहरु जैसे कुत्तों के चलते गर्त में मिल गयी और आज उसका सम्पूर्ण नाश करने में सहयोगी मीडिया और बॉलीवुड है और विरोध करो तो हम जैसे लोग बंद दिमाग वाले और नालायक की संज्ञा पाते हैं ,वाह भाई वाह
जब युद्ध भूमि पर धर्मराज युधिष्ठिर गुरु द्रोणाचार्य से युद्ध की आज्ञा तथा आशीर्वाद लेने गए तो गुरु द्रोणाचार्य ने उन्हें बड़े महत्त्व की बात कही जो उनकी ओर इंगित थी उन्होंने कहा -"शिष्य जो गुरु अपनी विद्या का सौदा कर देता है वो आदरणीय नहीं होता बल्कि अर्थ का दास होता है " आज ऐसे हजारों द्रोणाचार्य भारतीय सभ्यता के चीरहरण में चटखारों के साथ योगदान कर रहे हैं ,कैसी शर्मनाक स्थिति है ,

आज सारे गुरु विद्या का सौदा करते हैं और वही शिष्य उन्हें पसंद आते हैं जो गुंडागर्दी कर स्वयं को स्मार्ट कहते हैं थू !
मैं अपना एक किस्सा सुनाता हूँ मेरी अंग्रेजी की अध्यापिका ने मुझसे कहा -"इस उम्र में लड़के कटरीना कैफ के पीछे भागते हैं और तुम क्रांतिकारियों के पीछे "
क्या विचार है थू !
एक हमारे एक और महाशय अध्यापक श्री विक्रांत पाण्डेय भी धन्य हैं ,कक्षा में आकर बच्चों को श्रेष्ठ संस्कार देने के बजाय डबल अर्थी गंदे शब्द और गालियों के साथ भद्दे चुटकुले सुनाते हैं |
कितनी महान शिक्षा है वाह !
मेरी एक बार उनसे हिंदुत्व को लेकर बहस छिड़ गयी और उन्होंने मेरे पिताजी से यह शिकायत कर दी की मैं -मुस्लिम विरोधी हूँ जिसकी वजह से मुझे घर में फटकार मिली
वाह वाह क्या अध्यापक धर्म है
चाहे आप इसे मेरी व्यक्तिगत भड़ास कहें या मेरा क्रोध किन्तु स्थिति इतनी ही कुरूप है

बताइए गुरु धर्म के गिरते हुए स्टार का जिम्मेदार मैं किसे कहूँ और आप किसे कहेंगे -
नेहरु को?
अंग्रेजों को ?
मैकाले को ?
या
शर्मनिरपेक्षता को |

यह उत्तर देना हर एक का नैतिक कर्त्तव्य है क्योंकि मेरी तरह आप का भी बच्चा पब्लिक स्कूलों में पढता होगा!

जय श्री राम !

Saturday 23 April 2011

अमर शहीद हरिकिशन मल

यह मृत्युंजयी महावीर भी एक तूफान थे
जो आया और अंग्रेजी राज्य को बुरी तरह झकझोर कर चला गया |


हरिकिशन का जन्म १९०९ में उत्तर -पश्चिमी सीमाप्रांत (अब नापकिस्तान ) के मरदान जिले में हुआ था | इनके पिता का नाम गुरुदास मल था |
हरिकिशन विद्यार्थी थे तभी से उनका संपर्क नौजवान भारत सभा(शहीद भगत सिंह द्वारा निर्मित ) से हो गया था ,खुदाई खिदमतगार आन्दोलन में भी हरिकिशन सक्रिय थे | सन १९३० के सविनय अवज्ञा आन्दोलन (जो गाँधी का ढोंग था) में भी शामिल थे (स्पष्ट रूप से गाँधी के दोमुहे चेहरे से अपरिचित थे ) |
कुछ दिनों से परिवार के लोगों को हरिकिशन कुछ बदले बदले से लग रहे थे ,उसके पिता ने उससे पूछताछ की तो पता चला की हरिकिशन ने पंजाब के आत्याचारी अंग्रेजी गवर्नर -सर ज्योफ्रे दा मोंत्मरेंसी के वध का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर लिया है | यह जानकार उनके पिता गंभीर हो गए और पिताजी में हरिकिशन से कहा -"हम पठान इलाके के निवासी हैं | पठान बहादुरी में बेमिसाल होते हैं | यदि तुम पीठ दिखाकर भाग आये या पुलिस की यातनाओं से टूटकर अपने साथियों के नाम बता दिए तो यह परिवार गद्दारों का परिवार कहलायेगा | तुम जो करने जा रहे हो उसका फल मृत्युदंड होगा यह तो तुम्हे मालूम ही HOGA |
हरिकिशन की आँखें चमक उठीं ,"पिताजी !,मैं आपका बेटा हूँ ! ,मैं भागूँगा नहीं | पुलिस इस देह की बोटी -बोटी काट दे ,तप भी मैं उफ़ नहीं करूँगा | "

तब अचूक निशानेबाज गुरुदास मल ने उत्साह से बेटे को निशाना लगाना सिखाया |
२३ दिसंबर १९३० को लाहौर में पंजाब विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह हुआ | गवर्नर शान से मंच पर बैठा था | उपाधि पाने वालों और मेहमानों से हाल खचाखच भरा हुआ था ,उन्ही में हरिकिशन भी बैठे थे | उन्होंने शब्दकोष के पन्ने के भीतर पिस्तौल छिपा रखी थी | वोह समारोह की समाप्ति का उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे |
आखिर समारोह समाप्त हुआ |
मझोले कद के दुबला-पतला हरिकिशन उठे और देखते देखते उन्होंने गवर्नर के शरीर में पांच गोलियां दाग दीं ,(गवर्नर घयाल तो हुआ किन्तु मरा नहीं ) ,इसके बाद हरिकिशन ने आत्मसमर्पण कर दिया |
पुलिस ने उन्हें अनेक यातनाएं दीं , किन्तु प्रत्येक आत्याचार के बाद बाद उनकी आत्मा अधिक फौलादी होती चली गयी ,वह कुछ नहीं बोले |
जज ने उन्हें चौदह -चौदह वर्ष के कारावास की दो सजाएँ और मृत्युदंड दिया | (जबकि गवर्नर मारा भी नहीं ,तब भी मृत्युदंड ,यह था अँगरेज़ सरकार का न्याय का ढोंग ) "जज साहब,मुझे फँसी पर लटकाने के बाद मेरी लाश को अट्ठाईस वर्ष जेल में रखा जायेगा या अट्ठाईस वर्ष जेल में रखने के बाद फांसी दे जाएगी "| हरिकिशन खिलखिला हंस पड़े |
९ जून १९३१ को मियांवाली जेल में फांसी चढ़ते समय ,उन्होंने जल्लाद और पुलिस को डांट दिया ,"खबरदार! मुझे छूना मत !" फिर उन्होंने फांसी के पहने को चूमा ,
"भारत माता की जय" तथा "इन्कलाब जिंदाबाद " और वन्देमातरम के नारे लगाए और अमर हो गए | उन वीर की इस वीरता को अँगरेज़ कैसे सहन करते ,उनकी मृत देह उनके घर वालों को नहीं दी गयी ,उनके शव को जेल के बहार ही जलाकर राख को नदी में बहा दिया गया |

सहसा ही यह वीरता देख देवगणों ने स्वर्ग से और साक्षात् त्रिदेव ने अपने अपने लोकों से हरिकिशन को आशीर्वाद दिया और कहा
-
मृत्युंजयी भव!
मृत्युंजयी भव !
मृत्युंजयी भाव !

मृत्युंजयी चापेकर बंधू




पुणे की चित्पवान ब्राह्मण परिवार में दामोदर चापेकर का सन १८६९ में ,बालकृष्ण चापेकर का सन १८७३ में और वासुदेव चापेकर का सन १८८० में जन्म हुआ | तीनो भाइयों क्र मन में देशभक्ति की अखंड ज्योति जल रही थी | सन १८९७ में पुणे में प्लेग नामक भयंकर रोग फैला ,शिवाजी महाराज जयंती और गणेश उत्सव की क्रमशः बढ़ते हुए राष्ट्रीय उत्सव से अंग्रेज सरकार वैसे भी आतंकित थी , इसी बहाने वो लोगों से उनके मकान खाली करवा लेती और उन पर मनमाने अत्त्याचार करती | पुणे का प्लेग कमिश्नर रैंड इन अत्त्याचारियों का सरगना |
२२ जून १८९७ को विक्टोरिया के के राज्यारोहण की सांठवी वर्षगांठ थी | इसे बड़ी धूमधाम से गवर्मेंट हाउस में मनाया जा रहा था | एक लेफ्टिनेंट आय्रस्त उसी समय वहां से गुजर रहा था की की सहसा गोली का धमाका हुआ और दुसरे ही क्षण पापी रैंड धरती पर धराशायी हो गया ,उसी समय लेफ्टिनेंट आय्र्स्त को भी एक गोली लगी जिससे वोह भी यमलोक सिधार गया ,दामोदर चापेकर ने रैंड के और बालकृष्ण चापेकर ने आय्र्स्त का काम तमाम कर दिया |
दामोदर चापेकर और बालकृष्ण चापेकर दोनों भाई गिरफ्तार कर लिए गए और उनका एक साथी भी गिरफ्तार कर लिया गया , किन्तु किसी प्रलोभंवश या मृत्यु के भयवश तीसरा व्यक्ति सरकारी मुखबीर बन बैठा |
चापेकर बंधुओं में तीसरा भाई वासुदेव चापेकर था | उसने जब सरकारी गवाह वाला समाचार सुना तो वो प्रतिशोध लेने के लिए तत्पर हो उठा ,सरकारी गवाह को उसकी करनी का फल चखाने के लिए उसने भरी अदालत में देशद्रोही मुखबीर को अपनी एक ही गोली से यमलोक पहुंचा दिया |
दामोदर चापेकर १८ अप्रैल सन १८९८ ,बालकृष्ण चापेकर १२ मई सन १८९९, तथा वासुदेव चापेकर८ माई सन १८९९ को यरवदा जेल में मुस्कुराते हुए फांसी के फंदे पर अमर हो गए | इन तीनो के बलिदान ने समूचे भारत वर्ष को झकझोर दिया ,इससे भारतीय युवकों में आक्रोश में भड़क उठा | युवाओं ने माँ दुर्गा के सामने खड़े हो कर प्रार्थना की " माँ हमे शक्ति दो ,हम भारत की स्वाधीनता के लिए तब तक लड़ें जब तक हमारी जान में जान रहे | माँ हमे यह शक्ति दो ताकि हम अपने उद्देश्य में सफल हो सकें " |

आइये हम सब भी चापेकर भाइयों को याद करें और देश को पूर्ण स्वतंत्र करने की शपथ लें अखंड भारत निर्माता विनायक दामोदर सावरकर की इस कविता के साथ -

"निज स्वार्थों पर ठोकर मारी ,दुष्ट रैंड के प्राण हरे ,
परार्थ साधक श्री चापेकर आज उन्हें हम नमन करें
अंग्रेजों के दुष्ट कुटिल षड्यंत्र जिन्होंने ध्वस्त किये ,
देश हितैषी श्री चापेकर आज उन्हें हम नमन करें |
प्राण जाय पर सत्य ने जाय जो आजीवन टेक करे ,
धेय्य निष्ठ थे ,वीर श्रेष्ठ थे ,आज उन्हें हम नमन करें
देश धर्म की बलिदेवी पर प्रथम रहे देशापर्ण में ,
वंदन है शत बार हमारा श्री चापेकर चरणों में |
बिना शत्रु की तौले ताकत कूद पड़े समरांगण में ,
वंदन है शत बार हमारा ,श्री चापेकर चरणों में |
तीनो भाई मित्र रानाडे हँसते झूले फांसी में ,
मृत्यु पथ पर चले धीर-वर लेकर गीता हाथों में |
वंदन है शत बार हमारा श्री चापेकर चरणों में
कार्य अधुरा छोड़ चले हो इसकी चिंता करो नहीं ,
सब कुछ दे कर पूर्ण करूँगा माना जीवन धेय्य यही"

इन्कलाब जिंदाबाद !
चापेकर बंधू अमर रहें !
(चापेकर बंधुओं के बारे में मैंने अपनी कुछ पुस्तकों से इस कंप्यूटर पर छापा है ,इसमें मेरा कोई योगदान नहीं |)

Friday 22 April 2011

श्री राम प्रसाद बिस्मिल



यह महावीर क्रांतिकारी ,मात्र एक क्रांतिकारी नहीं थे ,ये इतिहास थे उस कविता के जिसे पढ़ कर उस समय और आज भी क्रांतिकारियों के मन में राष्ट्रभक्ति हिलोरें मारती हैं
उस कविता का नाम है -
"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ||
देखना है जोर कितना बाजू ऐ कातिल में है ||

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल गजब के कवी और शायर थे ,बड़े तगड़े थे जो उनसे मिलता कहता "कदाचित किसी और समय या किसी और देश में होते तो सेनानायक होते ,
आपका जन्म १८९७ में उत्तरप्रदेश के शाहजहाँ पुर में हुआ था ,आपके जीवन को क्रांति की ओर मोड़ने में आपकी माता का बड़ा योगदान रहा, आपकी माता ने आपका मार्गदर्शन ठीक वैसे ही किया जैसे मैजेनी नामक वीर क्रांतिकारी की माता ने मैजेनी का किया था,आपकी माँ ने आपसे मानव रक्त से अपने हाथ न लाल करने की सौगंध ली थी और आपने इसका आजीवन पालन किया ,आप बचपन में पिता से बहुत मार खाते थे और आप अपने संस्मरणों में लिखते हैं "कदाचित बचपन में मार खा खा कर आपकी देह जुल्म सहने के योग्य हुई | खैर ,जब आप के बचपन के बारे में मेरे पास अधिक साहित्य नहीं ,इसके लिए क्षमा चाहूँगा , जब आप युवा हुए तब आप "हिंदुस्तान प्रजातान्त्रिक संघ के सबसे महत्वपूर्ण सदस्य बन गए , उस दल के संस्थापक श्री सचिंद्रनाथ सान्याल (ये संस्थापक चंद्रशेखर आजाद से पूर्व थे इस दल के इन्ही के नेत्रत्व में आजाद जी ने भी काम किया था ) आपके व्यक्तित्व , आपकी कविता के कायल थे ,दल के सभी सदस्य आपका बड़ा आदर करते थे ,कुछ समय बाद आपकी भेंट एक अन्य वीर क्रांतिकारी शहीद अशफाकुल्ला खान से हुई और आप दोनों एक प्राण दो शरीर बन गए (जैसे भगत सिंह और सुखदेव ) अशफाकुल्ला खान भी इसी दल में थे और आप दोनों सदा साथ रहा करते थे ,चंद्रशेखर आजाद आपके सबसे प्रीय अनुगामी थे ,
सचिंद्रनाथ सान्याल बाबु के अकस्मात् पकडे जाने से दल के कार्य का सारा भार आपके कन्धों पर आ गया ,आपको दल का नेता बनाया गया ,और आपके नेत्रत्व में दल ने दुष्ट पूंजीपतियों के घर डाके डाले दल के धन जमा करने के लिए ,आपने और आपके साथियों ने दल के धन से एक पैसा स्वयं पर न खर्च किया ,ऐसे स्वाभिमानी थे आप सब , चंद्रशेखर आजादजी के कहने पर अब निश्चय हुआ हिन्दुस्थानियों के दल में डाका डालने से बदनाम होने से अच्छा है की अंग्रेजी साम्राज्य के खजाने पर डाका डाला जाए ,आपको यह योजना पसंद आई और सबने इस बात की स्वीकृति भर दी | शीघ्र ही इसका अवसर आ भी गया ,आपको पता चला की सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली रेलगाड़ी में अंग्रेजी खजाना जा रहा है जिसमे बहुत धन है और वो धन दल के हाथ लग गया तो दल को बहुत सहायता मिलेगी , आपने सबकी सहमति से निश्चय किया की इस रेलगाड़ी पर बिना किसी प्राण हानि के डाका दल कर यह खजाना हथिया लिया जाए , किन्तु अशफाकुल्ला खान ने चिंता व्यक्त की "अभी दल अंग्रेजी हुकूमत को इतना करारा थप्पड़ मारने के लिए शक्तिशाली नहीं ,यदि यह योजना हुई तो दल के नष्ट होने का खतरा है " किन्तु धन की कमी से विवश हो कर किसी ने गौर न किया गया ,आप इस कार्यवाही के नेता हुए ,इस कार्य में अशफाकुल्ला ,रोशन सिंह ,राजेंद्र लिहिरी ,चंद्रशेखर आजाद ,मुकुन्दी लाल आदि साथी शामिल थे ,९ अगस्त १९२५ को रात्री में इस कार्यवाही को अंजाम दिया गया ,इस कार्यवाही से अंग्रेजी हुकूमत सकते में आ गयी ,पूरे भारत में क्रांतिकारियों की धर पकड़ आरंभ हो गयी विशेष रूप से आपकी और आजाद जी की (जो पुलिस के पहले ही सबसे भयानक शत्रु थे ) एक साथी की गद्दारी के कारण आप और अशफाक जी पकड़ लिए गए , और अन्य साथी भी पकड़ लिए (चंद्रशेखर आजाद को छोड़ कर ) ,पुलिस ने आप पर सैकड़ों अत्त्याचार किये की आप अपना गुनाह मान लें और आजाद जी का पता बता दें ,किन्तु आप ने सबही जुल्मों को हँसते हुए सहा और दल के उत्तराधिकारी चंद्रशेखर आजाद पर आंच न आने दी , आप जेल में शायरी करते ,कविता करते ,खूब प्रसन्न रहते ,आप पर काकोरी काण्ड पर मुकदमा चला जिसमे अँगरेज़ सरकार का लगभग १ लाख रूपया खर्च हुआ , सरकारी गवाह पंडित जगतनारायण मुल्ला ने आप को फांसी लगवाने में बहुत मेहनत की जिससे अंग्रेजों ने आपको बहुत धन दिया ,अंत में न्याय का ढोंग खत्म हुआ आपको ,अशफाकुल्ला , रोशन सिंह ,राजेंद्र लिहिरी को मृत्युदंड मिला ,यह सुन कर आप सब प्रसन्नता से फूले न समाये ,आपने दंड सुनने के बाद सरकारी वकील को अपनी इस कथनी से लज्जित कर दिया "इश्वर करे आपको बुढापे में हमारे खून से रंगे पैसों से चैन की नींद आये " वकील यह सुन लज्जित हो गया ,एक खबर मिली की आपका प्यारा साथी अशफाकुल्ला खान जेल में बीमार हैं ,पुलिस आपको वहां ले गयी और आपको देखते ही अशफाकुल्ला की खान की बीमारी चली गयी ,ऐसे गाढ़ी थी आप दोनों की मित्रता , चंद्रशेखर आजाद ने आपको जेल से छुडाने की पूरी कोशिश की किन्तु सफल न हुए तो आपने उन्हें पत्र लिखा -
"मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या "
दिल की बर्बादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या "
जेल में आपने अपनी आत्मकथा लिखी ,किन्तु उसका क्या हुआ यह आज तक पता नहीं चल पाया | (किसी ने पता लगाने की आवश्कयता नहीं समझी )
फांसी से दो दिन पहले जब आपको दूध पीने को दिया गया तो आप ने हंस कर कहा की "मैं तो अब माँ का दूध ही पियूँगा"
फांसी से एक दिन पहले १८ दिसंबर को आपकी वीर माँ आपसे मिलने आयीं तो आप उन्हें देख कर रोने लगे ,माँ ने सख्ती से कहा " दधिची ,हरिश्चंद्र आदि पूर्वजों की तरह धर्म और देश के लिए प्राण दे! ,तुझे शोक करने की कोई आवश्कयता नहीं ,आप हंस पड़े और बोले "माँ मुझे क्या पछतावा और क्या दुःख ? मैंने कोई अपराध नहीं किया किन्तु जिस प्रकार अग्नि के पास रखा घी पिघल ही जाता है ,उसी प्रकार आपको देख कर मैं रोने लगा ,वरना माँ मैं तो बड़ा प्रसन्न हूँ "
१९ दिसंबर को गोंडा जेल में फांसी के फंदे पर जाते समय आप बड़े प्रसन्न थे ,फांसी के तख़्त पर आपने एक शेर पढ़ा ,वो इस प्रकार था -
"मालिक तेरी रजा रहे ,और तू ही तू रहे
बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे "
जब तक तन में सांस ,रगों में लहू रहे "
तेरा ही जिक्रेयार और तेरी जुस्तुजू रहे "
फिर आपने जोर से सिंह गर्जना की " आई विश डा डाउन फोल ऑफ़ ब्रिटिश एम्पयार " (मैं अंग्रेजी साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ ")
फिर कुछ मन्त्र बुदबुदाये और वन्दे मातरम का उद्घोष किया
और फिर आप इस लोक को छोड़ दुसरे राम के बैकुंठ लोक चले गए |
आपने स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण दिए किन्तु इस शर्मनिरपेक्ष इंडियन सरकार ने आपकी शहादत को क्या दिया -
भारत वर्ष का विभाजन और भ्रष्टाचार
आपकी माँ के पास उनकी मृत्यु के समय फटे कपडे थे
किन्तु हम अब ऐसा नहीं होने देंगे
हम आपको न्याय दिलाएंगे

यह हमारी भीष्म प्रतिज्ञा है !

वन्दे मातरम !

Thursday 21 April 2011

जर्मन फ्रेंच सिखाने की आड़ में संस्कृति नष्ट करने का घोटाला जो सांस्कृतिक बात करे वो बंद दिमाग वाला ! वाह रे आधुनिकता वाह !



वाह रे आधुनिकता वाह ! अंग्रेजों को गए ६३ वर्ष हो गए लेकिन हम भारतियों के मन में आज भी यही झंडा फहरता है
क्रांतिवीरों ,अभी परसों मेरे स्कूल में जर्मन फ्रेंच सिखाने का दावा करने वाली कुछ टोली आई थी ,टोली के नायक थे एक इकबाल साहब ,स्पष्ट बात है अल्लाह मियां के बन्दे इक़बाल को हिन्दू संस्कृति का कोई मान हो तौबा तौबा ! आके झाड़ने लगे जेर्मन फ्रेंच की महानता के गुण , ये लोग बच्चों को ग्रीष्मावकाश में जेर्मन ,फ्रेंच आदि भाषा सिखाने आये थे ,इक़बाल मियां ने अर्ज़ किया की "भारतवासी सदा लेना जानते हैं देना नहीं ",वाह वाह ! इकबाल मियां इतिहास के कई पन्ने खा गए सुवर खाने के साथ , इनको पता नहीं होगा की इनका प्यारा नापकिस्तान जिसके लिए ये भारत की रोटी खा भारत से गद्दारी करते हैं उस पर जब बाढ़ आई तो भारत का ह्रदय द्रवित हो उठा और उसने सहायता की (येर बात अलग है की मुस्लिम भक्ति के चलते ऐसा हुआ ), भारत ने हर धर्म को शरण दी है इनके जाहिल पिस्स्लाम को भी क्या ये भारत की उदारता का परिचय नहीं की जो यहाँ का आया (यवनों और ईसाईयों के अलावा ) यहीं का हो गया , भारत के ऐसे बुरे दिन कदाचित ही आये हों जब उसे दुसरे देश से सहायता मांगनी पड़ी ,वरना हर देश की सहायता करने में भारत सबसे आगे रहता है , इक़बाल मियां ने आगे अर्ज़ किया "हम लोग विदेशियों का मुह ताकते थे " वाह सबसे बड़ा शर्मनाक झूठ ,भारत ने हर देश को कुछ न कुछ सदैव दिया है , बौद्ध धर्म भारत से अन्य देशों में गया ,यदि स्वामी विवेकानंद जी अमेरिका यदि न जाते तो अमेरिका आधुनिकता की आड़ में नष्ट हो जाता ,फिर एक सत्य यह भी है की अमेरिका से वो विज्ञानं भारत भूमि पर लाने गए थे और अमेरिका को आध्यात्म देने , स्वामी जी ने कहा था "यदि भारत का कल्याण चाहते हो तो भारत को चाहिए की अपने रत्न ले जा कर बहार के देशों की पृथ्वी पर समेत दें और दुसरे देश वाले जो कुछ भी दें उसे सहर्ष स्वीकार करें", और भारत ने ठीक ऐसा किया ,४० प्रतिशत वैज्ञानिक नासा के भारतीय हैं , भारत अमेरिका के रीढ़ की हड्डी है यदि भारत नहीं रहेगा तो अमेरिका का नामोनिशान नहीं , काश हम ये समझ पाते तो हमन इतने नपुंसक न होते की इक़बाल जैसे कुत्ते की बात यूँ ही सुन लेते ,यह तो हुई की भारत ने नैतिक मूल्य विश्व को क्या दिए ,अब यह जानिये की भारत का वेद आदि विज्ञानों का भण्डार था और विदेशियों ने इसे ही चुराया और अपने देश में ले जा कर इसे के आधार पर खोजें की और हमे हीन बताया ,यह मेरा दंभ नहीं ,कित्नु यह सत्य की भारत संसार के रीढ़ की हड्डी थी है और रहेगी |

छोडिये इसे इकबाल मियां ने आगे अर्ज़ किया की "यदि आप सब जर्मन फ्रेंच जान कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एजेंट बनो गे तो आपको ही लाभ होगा "
देश द्रोह की शिक्षा खुले आम , वाह रे मेरे स्कूल प्रशासन धन्य है तू ,शर्म आती है मुझे ऐसे स्कूल का बच्चा होने में
मैंने सोचा की तर्कों से इनकी ईट से ईट बजा दूं ,किन्तु अन्दर यह डर बैठ गया की स्कूल में बवाल होगा और मुझे निकाल देंगे ,इस देशद्रोह को मैं चुप चाप सह गया तो ,इसलिए आप मुझ पापी को क्षमा कर दें
ऐसे ही मैंने स्कूल में एक बार हिंदुत्व का मुद्दा उठाया तो मेरे अध्यापक ने मुझे बंद दिमाग का कहा ,
वाह रे हिन्दुस्थान कन्नड़ ,पंजाबी आदि भारतीय भाषाएँ सिखाने का न इन कुत्तों के पास समय है न इन्हें यह आवश्यक लगता है ,इन्हें आधुनिकता के नाम पर अंग्रेजी का बढ़ावा चाहिए ,इन इक़बाल जैसे सुवर के पिल्लों को और हमारे खान्ग्रेसियों और बॉलीवुड को,यही कारण है की यदि हम दुसरे राज्य में नौकरी करते हैं तो हमे अंग्रेजी आनी चाहिए क्योकि केरल में रहने वाला हिंदी नहीं जानता और उत्तर प्रदेश में रहने वाला केरल नहीं जानता ,क्या हम अंग्रेजी को बढ़ावा देने के बजाय भारतीय भाषाओं को बढ़ावा न दें और हिंदी हर राज्य में आवश्यक कर दें ,चाहे लोक भाषा कोई क्यों न हो ,
और जब कोई भारतीय भारतीयता की बात करे तो वो सांप्रदायिक है ,आधुनिकता का दुश्मन है ,स्टोन एज का समर्थक है
इन परिस्थितयों को देख मुह से सहसा निकल पड़ता है
मेरा भारत महान !

अमर शहीद वीर हुतात्मा शिवराम हरी राजगुरु




यह महावीर भी शहीद भगत सिंह और सुखदेव के मृत्युपरियंत साथी थे | राजगुरु का जन्म २४ अप्रैल १९०८ को महाराष्ट्र के पुणे जिले में हुआ था इनके पिता का निधन इनके छुटपन में ही हो गया था इनका पालन पोषण इनकी माता और बड़े भैया ने किया ,यह बचपन से ही बड़े वीर ,साहसी और मस्तमौला थे ,भारत माँ से प्रेम तो बचपन से ही था ,इसी प्रकार अंग्रेजों से घृणा तो स्वाभाविक ही थी ,ये बचपन से ही वीर शिवाजी और लोकमान्य तिलक के बहुत बड़े भक्त थे ,संकट मोल लेने में भी इनका कोई जवाब नहीं था (ये संकट मोलने में भगत सिंह से भी दस कदम आगे थे ) | किन्तु यह कभी कभी लापरवाही करते थे और पढ़ाई में इनका मन न लगता इसलिए इनको अपने बड़े भैया और भाभी का तिरस्कार सहना पड़ता ,माँ बेचारी कुछ बोल न पाती ,जब राजगुरु तिरस्कार सहते सहते तंग आ गए तो वोह अपने स्वाभिमान को बचने के लिए घर छोड़ कर चले गए ,फिर सोचा की"अब जब घर के बंधनों से स्वाधीन हूँ ही तो भारत माता की बेड़ियाँ काटने में अब कोई दुविधा नहीं है" वे कई दिनों तक भिन्न भिन्न क्रांतिकारियों से भेंट करते रहे अंत में उनकी क्रांति की नौका को चंद्रशेखर आजाद जी पार लगाया राजगुरु हिंदुस्तान सामाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ के सदस्य बन गए , चंद्रशेखर आजाद इस जोशीले नवयुवक से बहुत प्रभावित हुए और बड़े चाव से इन्हें निशाने बाजी की शिक्षा देने लगे और शीघ्र ही आजाद जी जैसे एक कुशल निशाने बाज बन गए ,कभी कभी चंद्रशेखर आजाद इनको इनकी लापरवाहियों पर डांट देते किन्तु यह सदा आजाद जी को बड़ा भाई समझ कर बुरा न मानते इनकी गोलियां कभी चुकती नहीं थीं ,दल में इनकी भेंट भगत सिंह और सुखदेव से हुयी राजगुरु इन दोनों से बड़े प्रभावित हुए और ये दोनों तो राजगुरु को अपना सबसे अच्छा साथी मानते थे | दल ने लाला लाजपत राय के मृत्यु के जिम्मेवार अँगरेज़ अफसर स्कॉट का वध करने की योजना बनायीं ,इस काम के लिए शहीद राजगुरु और भगत सिंह को चुना गया ,राजगुरु तो अंग्रेजों को सबक सिखाने का अवसर ढूँढ़ते ही रहते थे ,सो मिल गया
१७ दिसंबर १९२८ को राजगुरु ,भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद ने सुखदेव के कुशल मार्गदर्शन के फलस्वरूप सांडर्स नाम के एक अन्य अँगरेज़ अफसर जिसने स्कॉट के कहने पर लाला लाजपत राय पर लाठियां चलायीं का वध कर दिया ,कार्यवाही के पश्चात भगत सिंह अंग्रेजी साहब बन कर ,राजगुरु उनके सेवक बन कर और चंद्रशेखर आजाद सुरक्षित पुलिस की दृष्टि से बच कर निकल गए |
समय ने करवट बदली भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के असेम्बली में बम फोड़ने और स्वयं को गिरफ्तार करवाने के पश्चात चंद्रशेखर आजाद को छोड़ कर सुखदेव सहित दल के सभी सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए ,केवल राजगुरु ही इससे बचे रहे ,आजाद जी के कहने पर पुलिस से बचने के लिए राजगुरु कुछ दिनों के लिए महराष्ट्र चले गए किन्तु लापरवाही के कारण राजगुरु भी छुटपुट संघर्ष के बाद पकड़ लिए गए | अंग्रेजों ने चंद्रशेखर आजाद का पता जानने के लिए राजगुरु पर अनेकों अमानवीय अत्त्याचार किये किन्तु वो वीर विचलित न हुए ,लेशमात्र भी नहीं ,पुलिस ने राजगुरु को अपने सभी साथियों के साथ लाकर लाहौर जेल में बंद कर दिया ,सभी साथी मस्तमौला वीर मराठी राजगुरु को पाकर बड़े खुश थे ,लाहौर में सभी क्रांतिकारियों पर सांडर्स वध का मुकदमा चल रहा था ,मुक़दमे को क्रांतिकारियों ने अपनी फाकामस्ती से बड़ा लम्बा खींचा ,सभी जानते थे की अदालत ढोंग है उनका फैसला तो अंग्रेजी हुकूमत ने पहले ही कर दिया था ,राजगुरु ,भगत सिंह और सुखदेव जानते थे की उनकी मृत्यु का फरमान तो पहले ही लिखा जा चूका है तो क्यों न अदालत में अँगरेज़ जज को धुल चटाई जाए अपनी मस्तियों से ,एक बार राजगुरु ने अदालत में अँगरेज़ जज को संस्कृत में ललकारा ,जज चौंक गया उसने बोला " टूम क्या कहता हाय " राजगुरु ने भगत सिंह की तरफ हंस कर कहा की "यार भगत इसको अंग्रेजी में समझाओ ,यह जाहिल हमारी भाषा क्या समझेंगे" ,सभी क्रांतिकारी ठहाका मार कर हसने लगे ,जज मुह देखता रह गया ,इधर जेल में भगत सिंह के नेत्रत्व में क्रांतिकारियों ने जेल में कैदियों के साथ होने वाले अमानवीय अत्त्याचारों के विरुद्ध आमरण अनशन आरंभ कर दिया ,जिसको जनता का जबरदस्त समर्थन मिला जो पहले से ही क्रांतिकारियों के प्रति श्रद्धा का भाव रखती थी ,विशेष रूप से भगत सिंह के प्रति , वायसराय के कुर्सी तक हिल गयी ,अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को हड़ताल तुडवाने का जबरदस्त प्रयत्न किया किन्तु क्रांतिकारियों के जिद्द के सामने वो हार गए , राजगुरु और जतिन दस की इस अनशन में हालत बड़ी पतली हो गयी ,राजगुरु और सुखदेव से अँगरेज़ विशेष रूप से हार गए थे , जतिन दस आमरण अनशन के कारण शहीद हो गए जिससे जनता भड़क उठी ,विवश हो कर अंग्रेजों को क्रांतिकारियों की सभी बातें मनानी पड़ीं ,यह क्रांतिकारियों की विजय थी ,उधर सांडर्स वध मुक़दमे का परिणाम निकल आया
सांडर्स के वध के अपराध में राजगुरु ,सुखदेव और भगत सिंह को मृत्युदंड मिला | तीनों इस मृत्युदंड को सुन कर आनंद से पागल हो गए और जोर जोर से इन्कलाब जिंदाबाद की गर्जाना की !

२३ मार्च १९३१ को वीर राजगुरु ने अपने दोनों मतवाले साथियों -भगत सिंह और सुखदेव के साथ फांसी के फंदे के माध्यम से अपने राष्ट्र के लिए अपने पार्थिव शरीर का त्याग कर दिया ,राजगुरु का प्राण गगन में उड़ गया और जयघोष करने लगा -
इन्कलाब जिंदाबाद !
इन्कलाब जिंदाबाद !
इन्कलाब जिंदाबाद !
साम्राज्यवाद का नाश हो !
साम्राज्यवाद का नाश हो !
साम्राज्यवाद का नाश हो !

Tuesday 19 April 2011

अमर क्रांतिकारी शहीद सुखदेव थापर


शहीद सुखदेव भगत सिंह की भांति ही वीर ,पराक्रमी थे ,हंसमुख किन्तु शीघ्रकोपी सुखदेव और गंभीर तथा शांत भगत सिंह एक प्राण दो शरीर थे |

शहीद सुखदेव का जन्म १५ मई १९०७ को पंजाब के लुधियाना शहर के एक जाट थापर परिवार में हुआ था ,उनके बचपन के बारे में मुझे ज्ञान नहीं ,,किन्तु उन्होंने शहीद भगत सिंह का साथ किस प्रकार मृत्यु तक दिया और हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ में उनके एक कुशल सूत्रधार की भूमिका ,उनका देश के लिए पागलपन और जूनून से भरा प्रेम , अंग्रेजों के लिए उनकी घृणा और छोटी से छोटी बात का भी किस प्रकार मजाक बना देना तथा उनका शीघ्रकोप आदि बातें सुखदेव को एक विशेष स्थान देती हैं | सुखदेव और भगत सिंह की भेंट लाहौर के नेशनल कॉलेज में हुई थी ,धीरे धीरे दोनों एक प्राण दो शरीर बन गए ,उनके एक अन्य साथी शहीद भगवती चरण वोहरा के छोटे भाई सामान थे सुखदेव और भगवती चरण की पत्नी दुर्गा भाभी तो अपने इस देवर पर लाड छिड़कती थीं ,बिलकुल अपने नन्हे पुत्र शची की तरह | सुखदेव ,भगत सिंह और भगवती चरण ने कॉलेज में मिलकर अन्य साथियों जैसे यशपाल , झंडा सिंह ,छैलबिहारी ,धरमपाल और मदनगोपाल आदि में क्रांति की लहर भरी और उन्हें अपना साथी बना लिया ,सुखदेव ,भगत सिंह और भगवती चरण ने मिलकर "नौजवान भारत सभा " नामक एक क्रांतिकारी संगठन बनाया ,यह संगठन कॉलेज के अन्य विद्यार्थियों से बना था जो जनता में आजाद होने की चाह ,शहीदों के बलिदानों का स्मरण और अंग्रेजों के प्रति घृणा पैदा करते थे ,यह दल शीघ्र ही पुलिस की दृष्टि में आ गया (विशेष रूप से भगत सिंह और सुखदेव ) किन्तु सुखदेव और भगत सिंह ने अपनी चतुराई से अपने संगठन की कदम कदम पर रक्षा की | तीनो लोगों (सुखदेव ,भगत सिंह और भगवती चरण ) ने समाजवाद का अध्ययन किया और उससे बहुत प्रभावित हुए ,सबसे अधिक भगत सिंह ,(किन्तु आज के नक्सल वाद(देशद्रोह) से नहीं ) सुखदेव और भगत सिंह ने अपने समय के क्रांति के महानायक अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद से भेंट की और उनके दल "हिंदुस्तान प्रजातान्त्रिक संघ'"का हिस्सा बन गए ,शीघ्र ही भगवती चरण ,यशपाल ,बटुकेश्वर दत्त ,और राजगुरु आदि क्रांतिकारी भी इस दल में आ गए ,भगत सिंह और सुखदेव ने अपने समाजवाद के विचार चंद्रशेखर आजाद को बताये और आजाद जी इससे काफी प्रभावित ,बहुत विचार विमर्श के बाद दल का नाम "हिंदुस्तान प्रजातान्त्रिक संघ" की जगह हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ रखा ,इस दल का उद्देश्य अंग्रेजी साम्राज्य पर सीधी चोट कर समानता के आधार पर शोषण रहित स्वतंत्रता दिलाना था | यह दल लाला लाजपत राय की मृत्यु से क्रोधित हो उठा और इसे राष्ट्रीय अपमान समझ लाला लाजपत राय की मृत्यु के उत्तरदायी अफसर स्कॉट का वध करने की सोची ,विशेष रूप से सुखदेव लाला जी की मृत्यु से क्रोध में पागल हो गये थे | जब इस कार्यवाही को करने के समय के विषय में दल की सभा बुलवाई गयी तब सुखदेव ने जोरदार स्वर में सभा को संबोधित किया " एक मामूली अफसर के कारण करोंडो भारतीयों के प्रिय नेता लाला जी की जान गयी और जनता के प्रतिनिधि (कांग्रेस) चूड़ियाँ पहन कर बैठे हैं ,बस बहुत हुआ इसका उत्तर हम देंगे ,स्कॉट को जान से मारना ही होगा !" सुखदेव को इस कार्यवाही का सूत्रधार बनाया गया ,१७ दिसंबर १९२८ को लाहौर में भगत सिंह ,राजगुरु ,आजाद ने सुखदेव के कुशल नेत्रत्व में सांडर्स नाम के एक अन्य अँगरेज़ अफसर सांडर्स (जिसने स्कॉट के कहने पर लाला लाजपत राय पर लाठी चलायी थी ) का वध कर दिया ,इसके बाद सुखदेव ने अपनी परवाह न करके भगत सिंह ,राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद को सुरक्षित लाहौर से बाहर पुलिस से बचाकर भेज दिया ( तीनो क्रांतिवीर कैसे निकले वो तो आपको भगत सिंह वाले पोस्ट में पता ही चल गया था ) ,उसके बाद दल ने सरकार के दमन चक्र का जवाब देने के लिए अंग्रेजों की केंद्रीय असेम्बली में बम फोड़ कर (बिना किसी की जान लिए ) ,पर्चे फ़ेंक कर और इन्कलाब के नारे लगा कर स्वयं को गिरफ्तार करवाने की योजना बनायीं गयी ,जिससे अदालत के जरिये क्रांतिवीर लोगों में स्वतंत्रता की लहर पैदा कर सकें और अंग्रेजी साम्राज्य को बर्बाद कर सकें ,इस कार्य के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को चुना गया , पहले आजाद जी ने भगत (जो उनके सबसे प्रिय थे ) को सख्ती से भेजने से मन कर दिया था और भगत सिंह भी झुकने लगे थे तो सुखदेव को इस बात से बड़ा क्रोध आया उन्होंने भगत सिंह को फटकारा - " तुम मृत्यु से डर गए हो तभी तो पंडित जी (आजाद जी) की बात के सामने झुक गए ,भगत सिंह के लिए अपने प्राण (सुखदेव ) से यह लांछन सुनना असहनीय हो गया और उन्होंने असेम्बली में जाने की जिद्द पकड़ ली ,और आजाद जी को मानना पड़ा | भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने निर्धारित योजना के अनुसार ही कार्य किया ,जिससे देश भर में क्रांतिकारियों की वीरता की धूम मच गयी ,भगत और दत्त पर मुकदमा चला और उन्हें उम्रकैद की सजा मिली , इसके शीघ्र बाद दुर्भाग्य शुरू हुआ ,सुखदेव सहित तमाम दल के सदस्य पकड़ लिए गए और क्रांतिकारियों की बम कारखानों पर छापे मारे गए , सुखदेव पार्टी के के सूत्रधार थे ,पुलिस ने उन पर चंद्रशेखर आजाद (जो स्वाभाविक रूप से पुलिस को चकमा दे चुके थे ) का पता बताने के लिए सैकड़ों आत्याचार किया , किन्तु हर जुल्म का उत्तर सुखदेव अपनी हंसी और व्यंग से देते जिससे अँगरेज़ उन्हें और मारते ,अँगरेज़ जितना मारते वो उतना अपनी हंसी से उन्हें चिढाते अंत में पुलिस मारते मारते थक जाती | सुखदेव,राजगुरु और अन्य साथी लाहौर जेल में बंद थे जबकि भगत सिंह और दत्त दिल्ली जेल में थे ,भगत सिंह और दत्त को भी दिल्ली जेल बुला लिया गया जहाँ उन सब लाहौर षड्यंत्र केस द्वितीय (सांडर्स की हत्या ) का मुकदमा चलने वाला था ,भगत सिंह और सुखदेव ने मुक़दमे को बहुत लम्बा खींचा कभी अदालत में वो दोनों शानदार भाषणों से जज और सरकारी अभियोजक का मुह बंद कर देते ,कभी इन्कलाब जिंदाबाद का दौर शुरू होता ,कभी हंसी मजाक का ,जज पठानों से जब उनकी पिटाई करवाता तो सुखदेव अपनी स्वाभाविक व्यंग शुरू कर देते जिससे पठान खीझ कर हार मान जाते ,भगत सिंह तो मार खाते समय मस्त मौला रहते ,इधर भगत सिंह ,सुखदेव और उनके साथियों ने जेल में कैदियों के साथ होने वाले अत्त्याचारों के विरुद्ध आमरण अनशन आरंभ कर दिया जिसे देश और विश्वभर में भयंकर समर्थन मिला ,वायसराय इरविन की कुर्सी हिल गयी ,अंग्रेजों ने हड़ताल तुडवाने की लाखों कोशिशें की जिन्हें फिर से क्रांतिकारियों की हाथ और सुखदेव के व्यंग का सामना करना पड़ा , अंत में वो हार मान कर थक गए ,सुखदेव व्यंग तो करते लेकिन अन्दर ही अन्दर उनका मनोबल टूट रहा था और वो आत्महत्या का विचार मन में लाने लगे किन्तु भगत सिंह द्वारा समझाने पर यह विचार छोड़ दिया और पुनः आशावादी हो गए | इधर जतिन दास नामक साथी की मृत्यु ने सरकार को विवश कर दिया की जेल में क्रांतिकारियों से अच्छा व्यवहार किया जाए और उनकी सारी मांगे मान ली गयीं ,यह क्रांतिकारियों की विजय थी | पर अब अंग्रेजों को अपना बदला लेना था तो उन्होंने लाहौर षड्यंत्र केस का फैसला अभियुक्तों की अनुपस्थ्ती में ही कर दिया ,सांडर्स के वध के अपराध में भगत सिंह ,सुखदेव और राजगुरु को मृत्यु दंड मिला | तीनो यह दंड सुन कर फूले न समाये | इधर शहादत से पहले सुखदेव का अंतिम कार्य शेष रह गया की गांधी द्वारा क्रांतिकारियों पर लांछन लगाने का कड़ा उत्तर देना ,इसके उत्तर में उन्होंने गांधी को एक पत्र लिखा जिसने गांधी की नीव हिला दी होगी , अब लोगों की आस गाँधी की ओर हुई की वो चाहता तो उन तीनो क्रांतिवीरों (भगत सिंह ,सुखदेव और राजगुरु ) की फांसी रोक सकता है ,किन्तु उस गांधी ने ऐसा प्रयत्न भी न किया | २३ मार्च १९३१ को सुखदेव भगत सिंह और राजगुरु के साथ शाम ७ बजकर ३३ घटक पर फांसी के फंदे पर चिर निद्रा में विलीन हो गए ,सांस तो थम गयी सुखदेव की
किन्तु उनका स्वर हवा में चीख चीख कर चिल्ला रहा था -
इन्कलाब जिंदाबाद !
साम्राज्यवाद का नाश हो !
लॉन्ग लिव दी रेवोल्यूशन !
डाउन डाउन विथ इम्पेरालिस्म !

वन्दे मातरम !
शहीद सुखदेव अमर रहें !

Monday 18 April 2011

अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद



भगत सिंह की भांति यह क्रांतिवीर भी किसी परिचय का मोहताज नहीं ,तेजोमय आँखें ,बलवान शरीर , मझला कद ,चेहरे पर स्वाभिमान और देश प्रेम की चमक , तानी हुई रौबदार उमेठी नुकीली मूछें ,ऊपर से कठोर ,अन्दर से कोमल , चतुर और कुशल निशानेबाज , ऐसे थे हमारे चंद्रशेखर आजाद | शहीद भगत सिंह ,सुखदेव ,राजगुरु की भांति माँ भारती के इस शेर के बलिदान को भी तिरस्कार मिला , किसी ने इनके शहादत को स्मरण न किया किन्तु अब ऐसा न होगा ,मैं चंद्रशेखर आजाद की जीवनी पुरावांचल और अपने ब्लॉग में लिख रहा जिससे आप सब उनके जीवन को और अच्छे से जान सकें |
इन्कलाब जिंदाबाद !

चंद्रशेखर आजाद का जन्म २३ जुलाई १९०६ को मध्य प्रदेश की भंवरा ग्राम में हुआ था ,इनके पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी था जो ईमानदार ,परिश्रमी ,और स्वाभिमानी थे वो गाँव के स्कूल के अध्यापक थे ,इनकी माता जगरानी देवी धर्मपरायण महिला थीं | ये बचपन में थोड़े कमजोर थे (विरोधाभास की चरम सीमा जो इनके जीवन में देखने को मिलती है ) बाद में ये कैसे इतने बलवान बने इसका तो कोई प्रमाणिक इतिहास नहीं , हाँ इतना अवश्य सुना जाता है की इनके गाँव में आदिवासी लोग अधिक थे तो वहां यह मान्यता थी की बचपन में यदि बच्चे को शेर का मांस खिलाया जाए तो वो भी बड़ा हो कर शेर की तरह बलवान बनता है इस कारण बालक चंद्रशेखर को भी ब्राह्मण होने के बाद भी शेर का मांस खिलाया गया | बालक चंद्रशेखर बचपन से ही शरारती किन्तु सिद्धांतों के पक्के थे ,वो बचपन से ही बड़े साहसी थे | एक बार ये बचपन में अपने बड़े भाई सुखदेव (क्रांतिकारी शहीद सुखदेव नहीं ) के साथ घर में एक जी के साथ ट्यूशन पढ़ रहे थे ,इनके मास्टर जी पास में एक बेंत रखते थे जिससे वो पढाई में गलती करने वाले की पिटाई किया करते थे ,वो बच्चों को कुछ बोल बोल कर लिखवा रहे थे ,अचानक इनसे बोलने में एक शब्द
गलत निकल गया ,बालक चंद्रशेखर ने यह ताड़ लिया उन्होंने बेंत उठाई और मास्टर जी को दो बेंत सटाक ! सटाक ! जड़ दी ,मास्टर जी बौखला गये .पिताजी ने जब चंद्रशेखर से उसका कारण पुछा तो उन्होंने कहा -"हमारी गलती पर यह हमे मारते हैं ,इनकी गलती पर मैंने इन्हें मार दिया " सब बालक चन्द्र का मुह ताकने लगे ,सब निरुत्तर थे | एक बार दिवाली की रात्रि को बालक चंद्रशेखर फुलझड़ी छुड़ा छोटे बच्चों का मनोरंजन कर रहे थे ,अचानक एक बच्चे ने कहा -"यदि एक फुलझड़ी इतना कमाल करती है तो दस फुलझड़ी एक साथ जले तो कैसा आनंद आये " ,चंद्रशेखर ने न आव देखा न ताव दस फुलझड़ियाँ एक साथ उठायीं और जलाना आरंभ कर दिया | इतनी फुलझड़ियाँ जलती देख बच्चे प्रसन्नता से कूदने लगे पर किसी का ध्यान उस वीर बालक के हाथों पर न गया ,चंद्रशेखर का हाथ जगह -जगह से बुरी तरह जल गया था ,जब उनके एक मित्र ने देखा तो उनकी माँ को बुला कर लाया ,माँ अपने बच्चे का घायल हाथ देख कर रोने लगीं ,चंद्रशेखर जी ने कहा "माँ यह शरीर मिटटी है और एक दिन इसे मिटटी में ही मिल जाना है तो इस शरीर से इतना मोह क्यों ?" बालक चन्द्र का तत्व ज्ञान सुन माँ समेत सभी अवाक् हो गये ,सभी समझ गए की इस बालक में कुछ है जो इसे औरों से अलग करता है | चंद्रशेखर का मन पढ़ाई में न लगता था यह स्कूल के बहाने अपने आदिवासी मित्रों के साथ वन में जा कर गुलेल आदि चलाना सीखते कदाचित इसी कारण इनका बन्दूक का निशाना इतना सटीक था | जब कुछ बड़े हुए तो इनकी इच्छा काशी में जा कर ,शास्त्रादी पढ़ कर शास्त्री बनने की हुई ,किन्तु माता -पिता अपने प्राणों से प्रिय चन्द्र को काशी भेजने को तैयार न हुए ,आज्ञा न पाकर किशोर चन्द्र एक रात चुपके से भंवरा से निकल गये सदा के लिए और पकड़ ली काशी वाली गाडी (कुछ जगह लिखा है की वो पहले बम्बई गये ,बाद में काशी किन्तु यह प्रमाणिक नहीं ) ,काशी में स्नातक शिष्यों के भोजन एवम रहने आदि का पूरा प्रबंध गुरुकुल कर करता है ,चंद्रशेखर भी वहीँ चले गए और शास्त्र पढ़ने लगे ,यहीं उनकी भेंट भारत के द्वितीय प्रधानमन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री से हुई जो उस समय वहीँ पढ़ रहे थे और चंद्रशेखर आजाद से दो वर्ष बड़े थे | वो चले तो गये वेदादि पढने किन्तु नियति ने तो उन्हें भारत माँ की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करना लिख रखा था ,यहाँ आ कर उनका मन शास्त्रादी से पूरा उचाट हो गया और उनका मन अंग्रेजों द्वारा देश में होने वाले अत्त्याचारों से पीड़ित होने लगा ,वो अपने राष्ट्र से प्राणों से भी ज्यादा प्रेम करने लगे और अंग्रेजों से भयंकर घृणा (किन्तु फिर भी उन्होंने जीवन पर्यंत किसी निर्दोष अँगरेज़ की हत्या न की ), वो राजनीति में सक्रिय रूप से रूचि लेने लगे ,वहां वे बड़े कठोर और अनुशासन प्रिय हो गये ,साहसी तो वो थे ही ,उनका व्यक्तित्व और अनुशासन देख हर कोई उनकी ओर देख कर खिंचा चला आता ,देश भर में असहयोग आन्दोलन जोर पकड़ रहा था ,दुर्भाग्य से भगत सिंह की तरह किशोरावस्था में उस गद्दार गाँधी के भक्त हो गये किन्तु जब गाँधी ने असहयोग आन्दोलन स्थगित किया तो उनकी गांधी के प्रति निष्ट नष्ट हो गयी ,उन्हें इस तथ्य पर पूर्ण रूप से विश्वास हो गया की क्रांति और बन्दूक के जोर पर ही स्वतंत्रता मिल सकती है , उन्हें जलियावाला बाग़ की घटना से भयंकर पीड़ा पहुंची और वो अंग्रेजी साम्राज्य को नष्ट करने के मनसूबे बनाने लगे ,एक बार वो कहीं जा रहे थे तो देखा की एक फिरंगी अफसर भारतवासियों को बुरी तरह पीट रहा था यह उनसे देखा न गया और उन्होंने क्रोध में आकर खींच कर उस अफसर पर पत्थर जड़ दिया ,अफसर घायल हो गया ,चंद्रशेखर वहां से बच निकले किन्तु बाद में पकड़ लिए गये ,उन्हें जज के समक्ष प्रस्तुत किया गया ,जज अँगरेज़ था सोचा किशोर डर जायेगा किन्तु किशोर के मुख पर भय का नामोनिशान न था | जज तिलमिला उठा
जज ने पुछा -
नाम?
उत्तर मिला -आजाद
पिता का नाम?
स्वतंत्र
माता का नाम ?
भारत माँ
काम धंधा ?
देश की आजादी के लिए प्रयत्न
जज क्रोध से जल भुन गया
किन्तु खुद पर संयम रखते हुए पूछा
पता?
उत्तर मिला -जेल खाना
जज का संयम उत्तर दे गया उसने कहा -ले जाओ इस बालक को और पंद्रह कोड़े मारो !
चंद्रशेखर उस सजा को सुन कर व्यंग में हंस दिए
जब जल्लाद ने पंद्रह कोड़े मारे तो प्रत्येक कोड़े पर न वो चिल्लाये न उन्होंने पीड़ा का प्रदर्शन किया
प्रत्येक कोड़े के साथ ही "भारत माता की जय ! और वन्दे मातरम ! निकला उस वीर के मुख से
जब कोड़े मारने के बाद जल्लाद ने उन्हें कुछ पैसे दिए पीठ का उपचार कराने के लिए तो उन्होंने उस पैसे को उसके मुह पर मारा
और चले गये ,यह खबर अग्नि की तरह पूरे भारतवर्ष में फ़ैल गयी ,आजाद सबकी आखों के तारे हो गये | जब माता-पिता को यह बात पता चली तो उन्होंने आजाद से घर लौट चलने को कहा तो आजाद ने कहा -"आपका बेटा नालायक नहीं है जो उसने भारत माँ की सेवा का व्रत लिया है ,इस देश की मिटटी में हम खेल कर बड़े हुए हैं अब इस देश की स्वतंत्रता मेरे लिए सब कुछ है " माँ -बाप निराश किन्तु संतुष्ट हो कर लौट गये | .चंद्रशेखर ने अपने नाम के आगे उस दिन के बाद से आजाद नाम लगा लिया और निश्चय किया -"पुलिस एक बार इस हाथ में हद्कड़ी लगा ली है वही बहुत है ,अब मरते दम तक आजाद रहूँगा ,मुझे ये गीदड़ छु भी न पाएंगे "| आजाद ने अमर शहीद पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और अमर शहीद अशफाकुल्ला कहाँ से भेंट की,वो दोनों चंद्रशेखर आजाद की अनुशासनप्रियता और साहस के कायल थे और अन्य क्रांतिवीरों से भी भेंट कर सचिंद्रनाथ सान्याल के हिंदुस्तान प्रजातान्त्रिक संघ नमक सशस्त्र आक्रामक क्रांतिकारी दल का हिस्सा बन गये और उस सेना के सेनापति रामप्रसाद बिस्मिल नियुक्त किये गए ,दल के कार्यों के लिए पैसे जुटाने के लिए वो दुष्ट पूंजीपतियों के घर डाका डालते थे ,किन्तु बिस्मिल जी को यह पसंद न आता वो कहते -"की जिस देश की जनता की स्वतंत्रता के लिए हम लड़ रहे उसी जनता की हानि करने से हमारी ही हानि है " अंत में सोच विचार के निर्णय लिया गया की की केवल अंग्रेजी खजाना ही लूटा जाये , इधर बीच आजाद अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण पुलिस की नज़र में चढ़ गए और उन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम करना आरंभ कर दिय ,अँगरेज़ उन्हें अपने सबसे भयंकर शत्रु मानाने लगे और उनके ऊपर तीस हजार का इनाम घोषित कर दिया गया ,इधर एक और धमाका हुआ आजाद और उनके साथियों द्वारा ,आजाद ,रामप्रसाद बिस्मिल ,अशफाकुल्ला खान ,राजेंद्र लिहिरी ,रोशन सिंह और २०-२२ अन्य क्रांतिकारियों से लखनऊ के समीप काकोरी स्टेशन पर रेलगाड़ी से सरकारी खजाना लूट लिया ,जिससे अँगरेज़ सरकार सकते में आ गयी ,देशभर में क्रांतिकारियों की धर-पकड़ आरंभ हो गयी ,दल के नेता रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक के साथ साथ राजेंद्र लिहिरी ,रोशन सिंह के साथ साथ पूरा हिंदुस्तान प्रजातान्त्रिक संघ पकड़ लिया गया,और बिस्मिल ,अशफाक ,रोशन और लिहिरी को फांसी पर चढ़ा दिया गया , किन्तु चंद्रशेखर आजाद पुलिस की नाक में दम करते हुए बच कर निकल गए ,पुलिस उन्हें विशेष रूप से पकड़ने के लिए और मनसूबे बनाने लगी ,किन्तु आजाद ने अपनी चतुराई से उसे विफल कर दिया ,अपने साथियों विशेष रूप से श्री रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्ला खान की मृत्यु पर चंद्रशेखर आजाद का ह्रदय रक्त के आसू रो पड़ा किन्तु इन परिस्थियों में वो कुछ न कर पाए इसका उन्हें जीवन भर मलाल रहा | समय ने करवट ली और आजाद ने पुनजब के प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगत सिंह और सुखदेव से भेंट की ,दोनों से भेंट कर करके उन्हें लगा की मानो उन्हें उनके सिपाही मिल गए ,भगत सिंह और सुखदेव तो आजाद के प्रति श्रधा से भरे हुए थे ही ,उन दोनों की मदद से आजाद ने फिर से अपना दल सशक्त कर लिया और उनके दल में भगत सिंह और सुखदेव समेत राजगुरु ,बटुकेश्वर दत्त , भगवती चरण वोहरा ,यशपाल आदि कई वीर क्रांतिकारी आ गए अब निर्णय लिया गया की सीधे अंग्रेजी हुकूमत की नीव पर चोट की जाये ,भगत सिंह के समाजवादी विचारों से संतुष्ट आजाद ने भगत सिंह के कहने पर दल का नाम हिंदुस्तान प्रजन्तान्त्रिक संघ बदल कर हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ कर दिया ,आजाद को उस दल का सेनापति बनाया गया ,दल ने लाला लाजपत राय के हत्यारे अँगरेज़ कमिश्नर स्कॉट से प्रतिशोध ने लेने की सोची ,१७ दिसंबर १९२८ को लाहौर में चंद्रशेखर आजाद ,भगत सिंह ,राजगुरु ने सुखदेव की सहायता से अँगरेज़ अफसर सांडर्स का (स्कॉट समझ कर) वध कर दिया , लेकिन बदला फिर भी पूर्ण हुआ (क्योंकि स्कॉट के कहने पर लाठी सांडर्स ने चलाई थी )कार्यवाही पूरी करने के बाद तीनों सुरक्षित वहां से निकल गए ,इसके बाद भगत सिंह अंग्रेजी साहब और राजगुरु उनके नौकर के वेश में और हमारे चंद्रशेखर जी जो पुलिस को चकमा देने में माहिर थे पंडित का रूप बदल कर सुरक्षित लाहौर से बच कर निकल गए | अंग्रेजों से अपना दमन चक्र दो बिलों के द्वारा (पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल ) तेज करने की सोची ,दल ने इसके विरोध में असेम्बली में बम फ़ेंक कर करने की सोची और स्वयं को उसी समय गिरफ्तार करवा कर मुक़दमे के जरिये अंग्रेजों के अत्त्याचार पूरे विश्व को बता कर भारत में स्वतंत्रता की लहर पैदा करने की सोची ,इस काम के लिए शहीद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को भेजा गया ,आजाद भगत सिंह को भेजना तो ना चाहते थे किन्तु भगत सिंह की जिद्द के समक्ष उन्हें झुकना पड़ा ,ठीक वैसा ही हुआ ,भगत सिंह और दत्त ने बम फेकने के बाद स्वयं को गिरफ्तार करवाया ,लेकिन दुर्भाग्य का उदय फिर हुआ भगत सिंह और दत्त के बाद सुखदेव ,राजगुरु और दल के लगभग सभी सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए ,आजाद का मनोबल क्षीण हो गया ,किन्तु दिल पर पत्थर रख कर उन्होंने बचे हुए साथियों के साथ वायसराय की गाडी उड़ाने के सोची ,पर गाड़ी में विस्फोट तो हुआ किन्तु वायसराय बच गया , आजाद ने भगवती चरण की सहायता से भगत सिंह और उनके साथियों को छुड़ाने की सोची ,वोह प्रयत्न भी विफल रहा और भगवती चरण जी इस प्रयास में शहीद हो गये , चंद्रशेखर आजाद ने क्रन्तिकार्यों को छुड़ाने के के लिए नेहरु से बात की ,किन्तु उसने राजनीति की गन्दी चाल खेली और कोई सहयता न दी ,इधर सांडर्स को मारने के अपराध में भगत सिंह ,राजगुरु और सुखदेव को मृत्युदंड मिला ,आजाद जी यह सुन कर तड़प उठे किन्तु उन्होंने हिम्मत से दल के कार्य के लिए दक्षिण में प्रयास करने की सोची और अपने दो साथियों सुखदेव राज और सुरेन्द्र पांडे को इसी सिलसिले में रूस भेजने की सोची किन्तु.........
वीर भद्र तिवारी नाम के एक साथी के मन में लालच घर कर गया और उसने इनाम की लोभ में आजाद जी का पता पुलिस को बता दिया
२७ फरवरी को सुबह आजाद जी अपने साथी सुखदेवराज से इलाहाबाद के अल्फर्ड पार्क में बैठ कर कुछ बात कर रहे थे की अचानक वीर भद्र तिवारी की गद्दारी के कारण पुलिस ने उन दोनों को चारों तरफ से घेर लिया ,आजाद ने स्थिति का गंभीरता से अवलोकन किया और अपने साथी सुखदेवराज को फरार कर दिया ,वो जाने को तैयार न हुआ तो उन्होंने उसे सख्ती से आदेश दे कर भगा दिया ,फिर आजाद ने पुलिस से मुकाबला आरम्भ किया ,एक आजाद अकेले सैकड़ों अंग्रेजों पर भारी पद रहे थे ,१५-२० को मौत की नींद सुला चुके ,किन्तु एक ओर अकेले आजाद और उधर सैकड़ों पुलिस ,मुकाबला कब तक होता ,आजाद जी को दो गोलियां जांघ और एक गोली फेफड़े पर लगी ,बचना असंभव सोच हो चूका था ,आजाद जी के पास एक गोली बची थी वो चाहते तो उससे भी दुश्मन को मौत की नींद सुला देते ,किन्तु उन्होंने उस गोली को बन्दूक में भर कर कनपटी कर रखा और ट्रिगर दबा दिया | और चंद्रशेखर आजाद सदा के लिए चिर निद्रा में वेलीन हो गये ,कायर पुलिस वाले उनके शव के पास आधे घंटे तक न गये ,यह खबर पूरे भारत में आग की तरह फैली की वीर चंद्रशेखर आजाद अमर हो गये ,लोगों की भक्ति उस इमली के पेड़ के लिए बढ़ गयी जहाँ आजाद जी ने वीरगति पाई ,दूर दूर से लोग वहां आ कर फूल -माला चढाने लगे ,अँगरेज़ यह देख कर जन आन्दोलन की कल्पना से भयभीत हो कर उन्होंने रातो -रात उस पेड़ को कटवा दिया | किन्तु क्या उनकी स्मृति को लोगों के ह्रदय से निकाल पायी? नहीं |
उधर मृत्यु जब आजाद को लेने जा रही थी तो यमराज ने पुछा की "किस मिटटी के हैं ये क्रांतिवीर जो बिना किसी व्यक्तिगत लाभ के देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर देते हैं?
त्रिलोक से उत्तर आया
यह वीर हैं !
यह वीर हैं !
यह वीर हैं !

Saturday 16 April 2011

शहीद ऐ आजम भगत सिंह


शहीद ऐ आजम भगत सिंह

इस क्रांतिवीर के परिचय की कोई आवश्यकता नहीं ,ये वो वीर है जो देशभक्त नौजवानों के अन्दर एक शोले की तरह अपने बुझ जाने के ८० वर्ष बाद भी जल रहा और चीख चीख कर कह रहा है -इन्कलाब जिंदाबाद !
साम्राज्यवाद का नाश हो !
खान्ग्रेस और भ्रष्ट राजनेताओं ने शहीद भगत सिंह और उनके साथियों सुखदेव ,राजगुरु ,चंद्रशेखर आजाद आदि को आतंकवादी कह इस देश की आत्मा पर करार थप्पड़ मारा है किन्तु सत्य कभी छुप नहीं सकता और इन्कलाब आ कर रहेगा चाहे ये कांग्रेसी कितनी भी कोशिश कर लें शहीदों को दबाने की किन्तु वो तो लोगों के ह्रदय में बस चुके हैं उन्हें कौन हटा सकता है ,भगत सिंह क्रांति का सूर्य बन कर सदैव चमकते रहेंगे और एक दिन हम उन्हें भारतीय नोटों पर ला कर उनकी शहादत से न्याय करेंगे |
इनकी जीवनी प्रस्तुत कर के मैं इनके बलिदान को ताजा रखने का प्रयत्न कर रहा हूँ,आशा है आपको मेरा यह प्रयत्न पसंद आयेगा
-इन्कलाब जिंदाबाद !

शहीद भगत सिंह का जन्म सन १९०७ में पंजाब के लायालपुर नाम के गाँव में हुआ था इनके दादा सरदार अर्जुन सिंह,परम देशभक्त , समाज सुधारक और महर्षि दयानंद के शिष्यों में एक थे ,इनके पिता सरदार किशन सिंह और इनके दोनों चाचा सरदार अजित सिंह और स्वर्ण सिंह अंग्रेजी राज्य के कड़े शत्रु थे ,इनकी माता का नाम विद्यावती था |
इनके पैदा होने के समय अंग्रेजों के अत्त्याचार अपने चरम पर थे, इस देश की रीढ़ की हड्डी किसानों की फासले लूट लेते थे अँगरेज़ ,जो किसान लगान न चूका पाए उसे दाने दाने के लिए तरसा दिया जाता और ये अँगरेज़ दुष्ट पूंजीपतियों के साथ किसान का खून चूस कर अपने जेबें भरते ,एक तरफ किसानों और मजदूरों के साथ ये अन्याय ,दूसरी तरफ देश की जनता को कीड़े मकोड़ों की तरह कुचल कर मार डालते ,और जो क्रांतिकारी इसका विरोध करते उसे फांसी के फंदों पर चढ़ा कर जालिम अंग्रेजी हुकूमत अपनी दरिन्दिगी की भूख मिटाती ,,यह देश जिसे सोने का खग कहा जाता अंग्रेजों ने यहाँ का धन ,ज्ञान ,विज्ञानं और शिक्षा पद्दति लूट कर इस देश को कंगाल कर दिया ,इस कारण आम आदमी ,किसान और भारतवासी अपने आप को ठगा हुआ ,दीन ,हीन समझने लगे ये देशभक्त नौजवानों से सहन न हुआ इस कारण उन्होंने पूरे भारत में लोगों का स्वाभिमान जगाने के लिए आन्दोलन आरंभ किय विशेष रूप से पंजाब में यह आन्दोलन जोर पकड़ा पंजाब में यह आन्दोलन भगत सिंह के पिता और उनके दोनों चाचा पगड़ी संभल जट्टा आन्दोलन चला रहे थे ,विशेष रूप से सरदार अजीत सिंह इस आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे और अँगरेज़ सरकार के सबसे खतरनाक शत्रुओं में से एक थे | भगत सिंह के जन्म के समय इनके पिता और दोनों चाचा जेल में बंद थे , इनके पैदा होते ही वो तीनो उसी दिन छुट गए इस कारण भगत सिंह को परिवार में बड़ा भाग्यशाली माना गया इस कारण दादी जैकौर ने अपने पोते का नाम भगतसिंह रखा और वो उसे प्यार से भागोवाला बुलाती थीं |
भगतसिंह के जन्म लेते ही परिवार में खुशियाँ आ गयीं ,पूरा परिवार मिल गया ,किन्तु सत्य है -"चार दिन की चांदनी फिर अँधेरी रात " समय ने करवट बदली इनके चाचा स्वर्ण सिंह जेल में अंग्रेजों द्वारा किये गए अत्त्याचार से तपेदीक की चपेट में आ गये और उसी के चलते २३ वर्ष की उम्र में अपनी पत्नी हुकुम कौर को रोता छोड़ शहीद हो गये , पूरा परिवार गम में डूब गया ,और दुसरे चाचा अजीत सिंह को अंग्रेजों ने फिर पकड़ लिया किन्तु वो उनसे बच निकले और देश के बहार चले गए ताकि वो अपने देश की आजादी की मशाल विदेशों में जला कर हिन्दुस्थानियों को एकत्र करें और उनकी पत्नी हरनाम कौर भी वियोग की आग में जलने लगीं ,दादा अर्जुन सिंह बूढ़े हो चले थे इसलिए घर की साड़ी जिम्मेदारी सरदार किशन सिंह पर आ गयी इस कारण उन्हें भी क्रांति से संन्यास लेना पड़ा और अपनी खेती बाड़ी देखनी पड़ी और अपने परिवार का ध्यान रखना पड़ा , भगत सिंह के ग्यारह वर्षीय भाई जगत सिंह की भी मृत्यु हो गयी ,यह परिवार के लिए एक और झटका था ,अब परिवार में केवल भगत सिंह ही थे जो क्रांति को आगे बाधा सकते थे ,सरदार किशन सिंह की उम्मीदें भगत सिंह पर थीं और निश्चय ही वो अपनी उम्मीदों से कहीं ज्यादा पाए |
बालक भगत सिंह बचपन से ही अंग्रेजों के अत्त्याचार को देख रहा था और अंग्रेजों के प्रति उसके मन में घृणा की अग्नि जल रही थी .जब भगत सिंह ८-१० वर्ष के हुए तभी से राजनीति का पूरा ज्ञान रखने लगे ,और क्रांतिकारियों की जीवनियाँ पढने लगे ,वो बचपन से ही तर्कशास्त्री थे कोई भी ऐसा नहीं था जो उनके तर्क को काट सके ,भगत सिंह क्रांतिकारियों में अपने चाचा सरदार अजीत सिंह और शहीद करतार सिंह साराभा को अपना आदर्श मानते थे,साराभा का चित्र तो सदैव उनकी जेब में रहता | जलियावाला बाग़ की घटना के बारे में सुन कर १२ वर्षीय भगत सिंह क्रोध से तिलमिला उठे और जलियावाला बाग़ की घटना के अगले दिन वो स्कूल जाने के बहाने सीधे अमृतसर के जलियावाला बाग़ पहुंचे
और पुलिस की नज़रों से बचते बचाते उस भीषण नरसंघार के घटना स्थल पर पहुंचे और खून से लतपथ मिटटी को उस बोतल में भर लिया जिसे वो अपने साथ लाये थे ,वो उस मिटटी पर प्रतिदिन रोज फूल माला चढाते ,वो सोचने लगे "मात्र शहीदों को याद करना पर्याप्त नहीं हमे स्वयं उनका मार्ग अपनाना होगा" | असहयोग आन्दोलन देश भर में जोर पकड़ने लगा यहाँ दुर्भाग्य से भगत सिंह गांधी की चिकनी चुपड़ी बातों में आ कर उनके समर्थक बन गए और असहयोग आन्दोलन के लिए अपनी नवी कक्षा की पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका यह भ्रम जल्दी ही टूट गया जब गांधी ने चौरी चौरा के बाद अपना असली रंग दिखा आन्दोलन बंद कर दिया अ,इसकी देश भर में निंदा हुई ,भगत सिंह की गांधी के प्रति भक्ति चूर चूर हो गयी | जिन विद्यार्थियों ने असहयोग आन्दोलन के समय अपनी पढाई छोड़ दी थी उनके लिए शेर ऐ पंजाब महापुरुष लाला लाजपत राय ने नेशनल कॉलेज खुलवाया ताकि वो अपनी पढाई कर सकें ,१७ वर्षीय भगत सिंह ने भी नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया ,ये एक क्रांतिकारी कॉलेज था जो पढाई के साथ साथ नवयुकों को देश की स्वतंत्रता के लिए तैयार करता था ,यहाँ पर भगत सिंह का परिचय अपनी ही तरह विचारधारा रखने वाले नवयुकों से हुआ इनमे प्रमुख थे सुखदेव ,भगवती चरण वोहरा ,यशपाल ,विजयकुमार ,छैलबिहारी ,झंडा सिंह और जयगोपाल ( जो बाद में गद्दार सिद्ध हुआ ) सुखदेव और भगवती चरण भगत सिंह के सबसे घनिष्ट मित्र थे ,भगत सिंह और सुखदेव तो एक प्राण दो देह हो गये ,सुखदेव और भगत सिंह एक दुसरे के बिना पूर्ण न थे ,भगत सिंह ,सुखदेव और भगवती चरण वोहरा ने मिलकर "नौजवान भारत सभा " नाम का क्रांतिकारी संगठन बनाया जिसमे नौजवानों को क्रांति के लिए तैयार किया जाता और देश के शहीदों का स्मरण करवाया जाता , इसी बीच तीनो मित्रों ने समाजवाद और कम्युनिस्म पर कई पुस्तकें पढ़ीं ,मार्क्स की रचनाएँ पढ़ीं और इससे प्रभावित हुए भगत सिंह और भगवती चरण तो समाजवाद के सबसे बड़े समर्थक बने ( किन्तु आज के वामपंथ के नहीं ) | घरवालों ने भगत सिंह से विवाह करने को कहा किन्तु भगत सिंह ने अपना उद्देश्य उन्हें बता दिया की उनका पूरा जीवन देश को गुलामी और अन्याय की बेड़ियों से मुक्त करने के लिए समर्पित हो चूका है और विवाह की बेड़ियाँ वो अपने पैर में नहीं पहन सकते | भगत सिंह ने अपने समय के सबसे बड़े क्रांतिकारी भारत माँ के शेर नौजवान चंद्रशेखर आजाद से भेंट की जो हिंदुस्तान प्रजातान्त्रिक संघ के सदस्य थे और अपने प्रहारों अंग्रेजों की नीव हिला रहे थे ,वो अंग्रेजों के सबसे खतरनाक शत्रु बन गए थे | दोनों नौजवानों ने एक दुसरे को समझा और एक दुसरे से प्रभावित हुए और भगत सिंह तो आजाद के प्राणप्रिय बन गए उस समय हिंदुस्तान प्रजातान्त्रिक संघ बिखर चूका था उसके बड़े बड़े सदस्य जैसे रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्ला खान शहीद हो चुके थे और कईयों को उम्रकैद और कालापानी मिल चूका था | आजाद का मनोबल टूट चूका था किन्तु भगत सिंह ने उन्हें हिम्मत दी ,और अपने मित्रों और प्राणप्रिय सुखदेव सहित नौजवान भारत सभा छोड़ कर हिंदुस्तान प्रजातान्त्रिक संघ में आ गए ,अन्य साथी भी देश के कोने कोने से आ गए और दल में जुड़ गए यहीं से उनका परिचय एक और महत्वपूर्ण क्रांतिकारी राजगुरु से हुआ जो कुशल निशानेबाज और बहुत साहसी थे ,भगत सिंह ने अपने समाजवाद के विचार आजाद जी को बताये ,आजाद जी उससे काफी प्रभावित हुए और बहुत विचार विमर्श कर इस दल को हिंदुस्तान प्रजातान्त्रिक संघ से हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ रख दिया गया इसी विषय में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में २८ सितम्बर १९२८ को अखिल भारत क्रांतिकारी सभा हुई और उसमे यह निर्णय लिया गया की दल के आक्रमण पक्ष के सेनापति आजाद जी और चिंतन पक्ष के सेनापति भगत सिंह होंगे | भगत सिंह ने इन दिनों क्रांतिकारी लेख लिखना शुरू कर दिया जिससे वो पुलिसे के नज़रों में आ गये और पुलिसे उन पर नजर रखने लगी | सायमन कमीशन भारत आ चूका था यह कमीशन अंग्रेजी तानाशाही सरकार की हिन्दुस्थानियों को धोका देने की नयी चाल थी ,पूरे भारत में इसका विरोध हुआ ,लाहौर में इसका विरोध लाला लाजपत राय के नेत्रत्व में हुआ ,लाहौर में विरोध प्रदर्शन के समय लाला लाजपत राय और अन्य भारतवासियों का जोश देख कर पुलिस अधिकारी स्कॉट बौखला उठा और उसने अपने सहयोगी सांडर्स से कहा की भीड़ को मार मार कर पीछे करो ,निर्दय सांडर्स ने भीड़ को छोड़ कर सीधे लाला लाजपत राय पर प्रहार किया जिससे लाला लाजपत के सीने पर गंभीर चोटें आयीं और यह अपमान की उनको एक साधारण अँगरेज़ अफसर ने निर्दयता से मारा को सहन न कर सके और १७ नवम्बर १९२८ को उनकी मृत्यु हो गयी ,भगत सिंह ,सुखदेव ,आजाद और राजगुरु समेत उनका पूरा दल इस अपमान को सहन न कर सका और उन्होंने लाला लाजपत राय की मृत्यु को राष्तिर्य अपमान मानते हुए प्रतिशोध लेने की ठानी , उन्होंने स्कॉट को मारने की योजना बनायीं और इस योजना के सूत्र धार सुखदेव बने ,भगत सिंह और राजगुरु को वध का काम सौंपा गया और चंद्रशेखर आजाद को उन दोनों की रक्षा का ,१७ दिसंबर १९२८ को जयगोपाल के इशारा करने पर भगत सिंह और राजगुरु ने स्कॉट की बजाय सांडर्स का वध कर दिया ,क्योंकि जयगोपाल से पहचानने में चूक हो गयी ,आजाद ने उन दोनों का बचाव किया और बचाव में एक अन्य सिपाही मारा गया | सांडर्स के मारे जाने से भी बदला पूरा हुआ क्योंकि लाठी तो सांडर्स ने ही चलायी थी यही सोच थी उस समय दल की ,वो तीनो घटना स्थल से सुरक्षित निकल गए , सांडर्स के वध ने पूरे देश में खलबली मचा दी और पुलिस भगत सिंह ,आजाद और राजगुरु को ढूँढने लगी ,भगत सिंह ने अपनी दाढ़ी सफाचट करवा ली और विलायती टोपी ,OVERCOAT पहन कर बिलकुल विलायती बाबु बन गए और भगवती चरण की पत्नी दुर्गा भाभी उनकी पत्नी के वेश में और राजगुरु जो नौकर के वेश में थे उनके साथ सुरक्षित लाहौर से निकल गए ,आजाद साधू के वेश में लाहौर ने निकल गए | भगत सिंह कलकत्ता पहुंचे और कांग्रेस अधेवेशन में ढोंगी कांग्रेसियों की अर्ध स्वराज्य की मांग सुन निराश हो गये और उन्होंने अपने काम को आगे बढ़ने के लिए पूरे भारत में बम के कारखाने खोल दिए | इधर अंग्रेजों ने अपना दमनचक्र तेज करने के लिए दो कानून पास करने की सोची एक था -पब्लिक सेफ्टी बिल जिससे किसी भी क्रांतिकारी को बिना वारंट पकड़ लिया जा सकता था और बिना मुकदमे फांसी या काला पानी दिया जा सकता था और दूसरा था ट्रेड डिस्प्यूट बिल जिससे किसानों और मजदूरों पर पूंजीपतियों के साथ मिलकर अन्याय किया सके और वो इसके विरोध में प्रदर्शन भी न कर सकें | भगत सिंह यह पढ़कर बहुत चिंतित हुए उन्होंने फ्रांस के क्रांतिकारी वेलां के बारे में पढ़ रखा था जिससे वो प्रभावित हुए थे उन्होंने सोचा" क्यों न हम भी वेलां की तरह संसद में बम फोड़ कर सबको चौका दें" | उन्होंने आजाद को यह योजना बताई ,आजाद को योजना पसंद आई और उन्होंने स्वीकृति दे दी भगत सिंह ने बताया की बम फेंकने वाला भागेगा नहीं बल्कि वो अपने को गिरफ्तार करवाएगा ताकि वो मुक़दमे के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत का भन्दा फोड़ सके और उसे दुनिया के सामने नंगा कर सके ,भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अपने आप को इस कार्य के लिए प्रस्तुत किया ,आजाद भगत सिंह को भेजना नहीं चाहते थे किन्तु भगत सिंह की हथ के आगे वो हार गये और विवश हो कर स्वीकृति दे दी | भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ८ अप्रैल १९२९ को अंग्रेजी संसद में दोनों बिलों के पास होते समय खाली जगह दो बम फोड़े ,संसद धुवें से और भयंकर ध्वनी से काँप उठा ,सब लोग इधर -उधर भागने लगे ,भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बड़े जोर से -"इन्कलाब जिंदाबाद! "
और साम्राज्यवाद का नाश हो ! का नारा लगाया और उसके बाद कुछ पर्चे फेंके जिनमे लिखा था -"बहरों को सुनाने के लिए लिए धमाके की आवश्कयता होती है "
उसके बाद उन्होंने अपने आप को गिरफ्तार करवाया | इस घटना ने पूरे भारत और वायसराय के साथ इंग्लैंड को भी हिला कर रख दिया तब से भगत सिंह और दत्त नौजवानों की प्रेरणा बन गए और देश के बच्चे -बच्चे की जुबान पर भगत सिंह और दत्त का नाम था और उनका दिया गया नारा इन्कलाब जिंदाबाद अब राष्ट्रीय नारा बन चूका था ,किन्तु गाँधी और नेहरु जैसे पापियों ने बम फेंकने का विरोध किया | भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर मुकदमा चला और मुकदमे में भगत सिंह ने अपना जो बयान दिया वोह हम संक्षेप में लिख देते हैं ,उन्होंने कहा -"हमने बम किसी की जान लेने के लिए नहीं बल्कि अंग्रेजी हुकूमत को यह चेतावनी देने के लिए फोड़ा की भारत अब जाग रहा है ,तुम अपनी गन्दी गाँधी हरकतें बंद करो , तुम हमे मार सकते हो हमारे विचारों को नहीं | बड़े बड़े साम्राज्य नष्ट हो गये किन्तु विचार आज भी जीवित हैं जिस प्रकार आयरलैंड और फ्रांस स्वतंत्र हुआ उसी प्रकार भारत भी स्वतंत्र हो कर रहेगा और भारत के स्वतंत्र होने तक नौजवान बार बार अपनी जान देते रहेंगे और फांसी के तख्ते पर चिल्ला कर कहेंगे -"इन्कलाब जिंदाबाद "! भगत सिंह और दत्त के इस बयान ने उन्हें जनता का नायक बना दिया ,अंग्रेजों ने भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को बम फेंकने के अपराध में आजीवन कारावास का दंड दिया | भगत सिंह और दत्त दिल्ली जेल में रखे गए ,उसके बाद पुलिस ने सुखदेव ,राजगुरु ,यशपाल ,जतिन दास समेत पूरे भारत से लगभग ९९% क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया ,बस चंद्रशेखर आजाद को पुलिस पकड़ने में असमर्थ रही , जैगोपाल सरकारी गवाह बन गया जिसके कारण सांडर्स वध का मुकदमा आरंभ हो गया इसे लाहौर षड्यंत्र केस द्वितीय कहा गया | भगत सिंह का असली युद्ध अब शुरू हुआ ,भगत सिंह और दत्त को दिल्ली से लाहौर जेल में भेज दिया गया जहाँ पर लाहौर षड्यंत्र का मुकदमा आरंभ हुआ ,भगत सिंह और उनके साथियों ने मुक़दमे को बहुत लम्बा खींचा ,कभी भगत सिंह ऐसे ऐसे बयान दे देते जिससे जज तिलमिला उठता और कभी इन्कलाब जिंदाबाद और हंसी मजाक शुरू हो जाता जिससे पुलिस क्रांतिकारियों को पीटती विशेष रूप से भगत सिंह और सुखदेव को क्योंकि दोनों ही पुलिस को बहुत सताते | अंग्रेजों ने भगत सिंह और सुखदेव को एक दूसरी के प्रति भड़काने का प्रयत्न किया लेकिन शैतानों के ये मनसूबे भी विफल हुए | जब पुलिस क्रांतिकारियों को मारती तो जनता तक यह बात पहुँचती और वो क्रोधित हो जाती भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारी इससे बहुत प्रसन्न होते ,क्योंकि वोह चाहते भी यही थे , भगत सिंह और उनके साथियों ने जेल में क्रांतिकारियों पर हो रहे अत्त्याचारों के विरोध में तक भूख हड़ताल की ,अँगरेज़ हुकूमत ने इसे हड़ताल तोड़ने की कई कोशिश की लेकिन असफल हुई ,इधर जनता का गुस्सा अंग्रेजों के प्रति और क्रांतिकारियों के प्रति प्रेम बढ़ता जा रहा था , पूरे देश भूख हड़ताल शुरू कर दी जिससे अंग्रेजी हुकूमत बहुत डर गयी ,जेल में भूख हड़ताल के दौरान क्रांतिकारी जतिन दास की मृत्यु ने और बगावत पैदा कर दी अंत में सरकार को झुक कर जेल की दशा सुधारनी पड़ी | यह क्रांतिकारियों के जीत थी , लाहौर षड्यंत्र केस में जैगोपाल की गवाही बहुत खतनाक सिद्ध हुई | अंत में मुक़दमे का फैसला आ गया जिसमे भगत सिंह ,सुखदेव और राजगुरु को सांडर्स वध के अपराध में मृत्युदंड मिला और उनके अन्य साथियों को भी लम्बी सजाएँ और काला पानी हुआ | पूरा देश ये सजा सुन रो पड़ा ,देश भगत सिंह की फांसी रोकना चाहता था लोगों की उम्मीद गाँधी से थी की वही कुछ कर सकता है किन्तु उस गांधी ने भगत सिंह,सुखदेव और राजगुरु को बचाने के नाम पर राजनीति की गन्दी रोटियां सेंकी और उन्हें बचने का नाम नहीं लिया गांधी इरविन पैक्ट में | अंत में २३ मार्च १९३१ को शाम ७ बजकर ३३ मिनट पर माँ भारती के तीन सपूत भगत सिंह ,सुखदेव और राजगुरु फांसी के तख्ते पर अमर हो गए |
और मरने तक तीनों के मुख पर एक ही
नारा था
-इन्कलाब जिंदाबाद !
इन्कलाब जिंदाबाद !
इन्कलाब जिंदाबाद !

काल ने तीनों मृत्युन्जों को वरदान दिया -चिरंजीवी भव !
चिरंजीवी भव !
चिरंजीवी भाव !

Friday 15 April 2011

शहीदों के जीवन चरित्र !

आज से मैं कुछ दिनों के लिए क्रांतिकारियों के जीवनियाँ पोस्ट करूँगा ताकि उनका बलिदान लोगों के ह्रदय में ताजा रहे यह क्रम ५-६ दिन चलेगा फिर चर्चाएँ आरंभ होंगी
इन्कलाब जिंदाबाद!

हिन्दुस्थान हिंदुत्व समाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ

क्रांतिवीरों ,यश पाण्डेय का प्रणाम स्वीकार हो मैंने शहीद भगत सिंह का दल  हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ को फिर से शुरू किया है इसके संस्थापक शहीद भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद थे किन्तु उनके बाद इस दल को चलने और भारत माता की सेवा करने का सौभाग्य मैं प्राप्त करना चाहता हूँ इसलिए यह दल बनाया है इस दल में मैंने हिंदुत्व नाम और जोड़ा है जो इस दल के मूल नाम में नहीं था पहले ये दल अंग्रेजों और अत्त्याचारियों से लड़ता था लेकिन अब ये दल इन दोनों के साथ हिंदुत्व के विरुद्ध उठने वाले संकट से लडेगा जानता हूँ की भगत सिंह हिंदुत्व के समर्थक नहीं थे किन्तु आज की परिस्थितियों में मुझे यही उचित लगा | हिंदुत्व का ये नाम सावरकर को समर्पित है और उन असंख्य हिन्दुओं को जिन्होंने हिंदुत्व की रक्षा के लिए मृत्यु या अपमानपूर्ण जीवन जिया जैसे शहीद नाथूराम गोडसे | अब मैं प्रतिदिन कोई न कोई जागृत करने वाला लेख लिखूंगा जो इस देश के दुश्मनों ,यवनों ,और काले अंग्रेजों के साथ साथ बॉलीवुड की भी नींद उदा देगा और बहुराष्ट्रीय कंपनी की पोल भी मैं अपने लेख से खोलूँगा और राजीव भाई की मृत्यु का बदला लूँगा आप सब से निवेदन है की एक बार तो दिन में मेरे लेख देख लें आप निराश नहीं होंगे 

वन्दे मातरम !

हम करें राष्ट्र आराधन !

ॐ राष्ट्राय नमः 
भारतीय क्रांतिवीरों यह ब्लॉग इसलिए बनाया है ताकि हम अपनी भारत माँ को इन  दुष्ट यवनों ,पापी राजनेताओं और काले अंग्रेजों से बचा सकें ,भारत को पुनः उसका खोया हुआ स्वाभिमान ,हिंदुत्भक्ति और उसकी पदवी "सोने का खग " दिला सकें इसके लिए सबसे पहले सत्य उजागर करना होगा ऐसे सत्य जिसे कांग्रेसी वंशवाद और मुस्लिम तुष्टिकरण नीति के चलते छुपा दिया गया था और देश के शहीदों का अपमान किया गया और इन राजनेताओं ने कितनी निर्दयता से देश को लूटा यह तो राजीव दीक्षित और स्वामी रामदेव जी के भाषण स्पष्ट करते हैं |
यह ब्लॉग शहीद ऐ आजम सरदार भगत सिंह और स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर को समर्पित है 
इस नाम का दल सरदार भगत सिंह ने बनाया था बस इसमें केवल हिंदुत्व वाद नहीं था क्योंकि वे नास्तिक थे स्वाभाव से और मुस्लिमों की चाल समझ न पाए उन्हें उस समय केवल अंग्रेजों के अत्त्याचार दिखे जिससे आज भ्रष्टाचार कहा जाता है अंग्रेजी  राज्य और आज के राज्य में कोई फर्क नहीं बस सत्ता का स्थानांतरण है ,फर्क इतना है की उस समय गोरे अँगरेज़ देश को लूट रहे थे और आज काले अँगरेज़ भ्रष्टाचार के जरिये हमे उसके विरुद्ध  भी जी तोड़ युद्ध करना 
लेकिन इन सबसे लड़ने के साथ हमे हिंदुत्व की भी रक्षा करनी है इसलिए मैंने इस दल में हिंदुत्व जोड़ा है जो वीर सावरकर की याद को समर्पित है उन्होंने इस अंग्रेजी भ्रष्टाचार के साथ मुस्लिमों की गन्दी नीति देख ली थी और अंग्रेजों और मुसलामानों से आजीवन संघर्ष करते रहे |
इस दल में समाजवाद का भी स्थान है लेकिन वहीँ तक जहाँ तक यह राष्ट्रद्रोह में न बदल जाये 
उसके बारे में हम लेखों के माध्यम से बात करेंगे 
इस समय हमे केवल हिंदुत्व ,भ्रष्टाचार और पाश्चात्य सभ्यता को मुद्दा रखकर इस देश के शत्रुओं से युद्ध करेंगे 
और शहीदों को भी समय समय पर स्मरण करेंगे 
अपने लेखों के माध्यम से हम वोह सत्य उजागर करेंगे जो स्वार्थी गाँधी औरन नेहरु ने अपने काले कारनामों से छुपा रखा था और हम इस्लाम का भन्दा भी फोड़ेंगे 
लेकिन यह सब तभी हो सकता है जब  आप मेरा साथ दें 
आशा है आप मेरा साथ दे कर इस युद्ध को और व्यापक करेंगे 
तो आज से ही हम इस देश के दुश्मनों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करते हैं-
बोलो 
-भारत माता की जय !
-भारत माता को जय !
-भारत माता की जय !